उपन्यास >> दीक्षा दीक्षानरेन्द्र कोहली
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दीक्षा
नौ
विशाला से प्रातः चलकर, थोड़ी देर पूर्व ही उन्होंने मिथिला में प्रवेश किया था। किंतु, मिथिला प्रदेश में प्रवेश करते ही, गुरु फिर किसी असमंजस में पड़ गए थे। अब उनकी गति में वेग नहीं रह गया था। उनका लक्ष्य भी ध्रुव नहीं था। वह अनमने-से कुछ सोचते जा रहे थे। अंततः जब गुरु ने रुकने का आदेश दिया, तो राम ने देखा, गुरु न तो जनकपुर के राजप्रासाद में रुके थे, न सीरध्वज की यज्ञ-भूमि में। वे लोग जनकपुर के बाहर, किसी प्राचीन उपवन में रुक गए थे। किंतु गुरु का कदाचित् यहां वास करने का विचार नहीं था। उन्होंने पीछे आते हुए छकड़ों से सामान उतारने का कोई आदेश नहीं दिया था। वे खड़े-खड़े कुछ सोच रहे थे।
''यह उपवन कुछ असाधारण है गुरुदेव।'' एक लम्बे मौन के पश्चात् राम बोले।
''हां महाबाहु।'' गुरु का स्वर गम्भीर था, ''यह साधारण उपवन नहीं है। यह एक प्राचीन आश्रम है।''
राम मुग्ध होकर, उस आश्रम को देख रहे थे। ऐसा सुंदर आश्रम कदाचित् उन्होंने इससे पहले नहीं देखा था। इस आश्रम पर प्रकृति की भरपूर कृपा थी। पेड़, पौधे, लताएं, कुंज, झाड़ियां, पुष्प, फल, पशु, पक्षी...सब इतने विपुल इतनी अधिक संख्या में थे, जैसे प्रकृति का सौन्दर्य पुंजीभूत हो एक जगह पर आ गया हो। ऐसा नहीं लगता था कि मनुष्य ने, उसको किंचित् संवारने के अतिरिक्त, कभी उसका क्षय भी किया हो। जैसे, मानवीय हाथ यदि कभी इस आश्रम को लगे, तो उसके निर्माण के लिए ही लगे। मानवीय बाधा के कारण, उसमें कहीं कोई दोष दिखाई नहीं पड़ता था-मानो उस आश्रम का कभी उपयोग ही न हुआ हो, वहां कोई रहता ही न हो। कितना सन्नाटा है। सब ओर शांति, स्तब्धता। कैसा तो, एक रहस्य का आभास होता है।
''भैया! यह आश्रम, पिताजी द्वारा ब्याह कर लाई, और किसी महल में ठहरा कर, भुला दी गई किसी रानी जैसा अछूता नहीं लगता क्या?'' लक्ष्मण ने बहुत धीरे-से राम के कान में कहा।
किंतु राम अतिरिक्त रूप में गम्मीर थे। उन्होंने लक्ष्मण की बात सुनी, आंखों ही आंखों में उसकी चपलता को सराहा और डांटा। अन्त में विश्वामित्र की ओर मुड़े।
विश्वामित्र हल्के-हल्के मुस्करा रहे थे, जैसे जानते हों कि राम अभी इसी मुद्रा में उनकी ओर मुड़ेंगे।
''राम! है न यह आश्रम अद्भुत और विचित्र।'' गुरु का स्वर करुणायुक्त हो गया, ''राघव! यह ऋषि गौतम का वही परित्यक्त आश्रम है, जहां इन्द्र द्वारा अहल्या पर अत्याचार हुआ था।...''
लक्ष्मण की आंखों में क्रोध उमड़ा और मुख से अजाने ही हुंकांर फूटी, ''इन्द्र! भ्रष्ट सत्ताधारी!
राम की गंभीरता में करुणा घुल गई।
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- प्रथम खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- द्वितीय खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
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