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उपन्यास >> दीक्षा

दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14995
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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दीक्षा

आठ

 

प्रातः जिस समय गुरु विश्वामित्र स्नान कर आश्रम में लौटे तो आश्चर्यचकित रह गए। अब तक सिद्धाश्रम का सारा स्वरूप ही बदल गया था। सिद्धाश्रम इस समय आश्रम कम, एक सैनिकशिविर ही अधिक लग रहा था। आश्रमवासियों में से शायद ही रात को कोई सोया हो, किंतु लोग इस समय तनिक भी शिथिल नहीं थे। वे सब नहा-धोकर अपने-अपने कर्त्तव्य-स्थान पर वर्तमान थे।

इससे भी बड़े आश्चर्य की बात यह थी कि सिद्धाश्रम के साथ लगते हुए प्रायः ग्रामों के समस्त स्त्री-पुरुष अपने परिवारों के साथ सिद्धाश्रम में उपस्थित थे। पुरुष सैनिक मुद्रा में युद्ध के लिए प्रस्तुत थे और स्त्रियों ने अनेक युद्धेतर कार्य संभाल लिए थे। वे वृद्धों, शिशुओं तथा रोगियों की देख-भाल कर रही थीं। वे सूचनाएं लाने और ले जाने का कार्य कर रही थीं। सब ओर एक अनुशासित व्यस्तता दिखाई पड़ रही थी। उन सब लोगों की आकृति पर एक आशा थी, आत्मविश्वास था और था तेज।...ये सब लोग थे, जिन्होंने गुरु के बार-बार आह्वान करने पर भी राक्षसों के भय से, कभी अपने ग्राम से बाहर पैर नहीं रखा था। उन्हें यदि पता लग जाता कि जिस मार्ग पर वे लोग चल रहे हैं, उस पर किसी राक्षस के आने की संभावना है, तो वे लोग मार्ग छोड़कर भाग जाया करते थे। इनके मुखिया लोगों के मुख राक्षस शब्द सुनते ही पीले पड़ जाते थे। और आज वे ही लोग निर्भय हो, राक्षसों से युद्ध करने के लिए आक्रामक मुद्रा में बैठे हैं...आर्य भी, शबर भी, भील भी, निषाद भी...।

गुरु अपनी गरिमापूर्ण सहज गति से, लोगों से घिरे, मध्य में बैठे राम और लक्ष्मण के पास पहुंचे।

'राम! तुमने अद्भुत चमत्कार कर दिया है पुत्र! यह शोषित और दलित प्रजा कितनी समर्थ और सक्षम लग रही है। मैं आज मान गया हूं कि प्रजा न तो कायर होती है, न आलसी; पर उचित नेतृत्व का निरंतर अभाव उसे कायर और आलसी ही नहीं, अत्याचार और अन्याय के प्रति सहिष्णु भी बना देता है। और उचित नेतृत्व के मिलते ही, उसमें गीले, ठंडे पड़े पदार्थ में आग लग जाती है, उसका तेज जाग्रत हो उठता है। तुम समर्थ हो राम! तुम समर्थ हो।''

"यह आपकी ही महिमा है गुरुदेव!'' राम ने मस्तक झुकाते हुऐ नम्र वाणी में कहा, ''अब आपसे प्रार्थना है कि आप अपना यज्ञ आरंभ करें। मैं लक्ष्मण, आश्रमवासी और ये समस्त प्रजाजन यज्ञ की रक्षा के लिए प्रस्तुत हैं। यज्ञ वस्तुतः राक्षसों के लिए युद्ध का आह्वान है, हमें देखना है उनमें कितना साहस है।''

विश्वामित्र ने मुग्ध दृष्टि से राम को देखा। सरलता और साहस की मूर्ति राम! स्नेह से उनका कंठ अवरुद्ध हो गया। गुरु मुख से कुछ न कह सके।

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    अनुक्रम

  1. प्रथम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. बारह
  24. तेरह

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