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उपन्यास >> दीक्षा

दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14995
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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दीक्षा

चार

 

गौतम जब स्नान कर वापस लौटे तो संपूर्ण आश्रम में उन्हें एक प्रकार की अव्यवस्था-सी दिखाई पड़ी। वे समझ नहीं सके कि क्या बात है, किंतु कुछ न कुछ असाधारण अवश्य था। चलते-चलते वे अपनी कुटिया के पास आए, तो वहां स्थिति सबसे अधिक असाधारण थी। पूर्ण अव्यवस्था की स्थिति में एक भीड़ उनकी कुटिया के सामने खड़ी थी...गौतम का मन धक् रह गया-क्या बात है...शत को तो कहीं कुछ...पर शत का ज्वर कोई ऐसा गंभीर तो नहीं था...और अभी थोड़ी देर पहले तो वे उसे ठीक-ठाक सोता हुआ छोड़कर गए थे...।

किंतु अहल्या का यह चीत्कार और उसकी ऊंची से ऊंची चीख से होड़ लेता हुआ शत का स्वर...यह कैसी पीड़ा है...। और कुटिया के द्वार पर खड़े हुए ये आप्रमवासी और अभ्यागत ऋषि-मुनि, आचार्य और ब्रह्मचारी! ये लोग इस सारी घटना का अंग होते हुए भी कितने तटस्थ खड़े हैं, जैसे दर्शक मात्र हों, तटस्थ द्रष्टा...कर्त्ता नही...।

इससे पहले कि गौतम अपनी कुटिया के द्वार तक पहुंचते, भीतर से द्वार खुला और उनकी कुटिया में से इन्द्र निकला-कैसे अस्त-व्यस्त वस्त्र और कैसी अस्त-व्यस्त मुद्रा; मुख और भुजाओं पर लगी खरोचें, तथा रक्त के छोटे-छोटे बिंदु जैसे किसी से हिंस्र मल्ल-युद्ध करके आया हो...इससे पूर्व कि इस सर्वथा अप्रत्याशित दृश्य को ग्रहण कर गौतम की चेतना किसी निष्कर्ष तक पहुंचती, इन्द्र ने तनिक संकोच के साथ उन्हें एक क्षणांश तक देखा और निर्लज्ज धृष्टता से एक वाक्य भीड़ की ओर उछाल दिया, "पहले तो स्वयं बुला लिया और अब नाटक कर रहे।...।"

इन्द्र निमिष-भर भी नहीं रुका। ऋषियों, तपस्वियों तथा आश्रमवासिएयों को धकियाता हुआ, सीधा अपने विमान तक पहुंचा; और जब तक कोई संभल सके, उसका विमान पृथ्वी से ऊपर उठ गया...।

बिजली की चमक और कड़क के साथ, सारी स्थिति गौतम के सम्मुख कौंध गई। वे ऐसे जड़ हो गए, जैसे बिजली टूटकर उन पर आ गिरी हो।

कोई अपनी जगह से हिल नहीं रहा था। सब ओर निस्पंदता थी। समस्त उपस्थित जन की दृष्टियां गौतम के चेहरे पर आकर स्तंभित हो गई थीं, मानो वे व्यक्ति न हों, चित्र हो, मूर्ति हों...और इस सबकी पृष्ठभूमि में शत के क्रंदन तथा अहल्या की सिसकियों का स्वर, नियमित अंतराल के पश्चात् लगातार आ रहा था...।

गौतम थके-टूटे से अपनी कुटिया की ओर बड़े। उनके कुटिया में प्रवेश करते ही, अहल्या ने एक बार मुख उठाकर उनकी ओर देखा और बोली, "स्वामि! मैं सर्वथा निर्दोष हूं...''

अहल्या का कंठ अवरुद्ध हो गया। उसने अपना मुख हथेलियों में छिपा लिया।

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    अनुक्रम

  1. प्रथम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. बारह
  24. तेरह

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