उपन्यास >> दीक्षा दीक्षानरेन्द्र कोहली
|
0 |
दीक्षा
पांच
''वत्स! वसिष्ठ ने तुम्हारे पिता की इच्छा के विरुद्ध तुम्हें मेरे साथ भेजा है, यह उनकी बुद्धिमत्ता है।'' विश्वामित्र का स्वर बहुत कोमल और शब्द स्नेहसिंचित थे, ''क्योंकि वह अनेक ऐसी बातें समझते हैं, जो तुम्हारे पिता सम्राट् दशरथ नहीं समझते।''
राम के सरल ईमानदार चेहरे पर अशांति की कुछ रेखाएं उभरीं।
''पिता की निंदा नहीं सुन सकते वत्स?'' विश्वामित्र हंस पड़े।
''गुरुदेव! अन्यथा न मानें।'' राम के शब्द सधे हुए थे, ''किंतु यदि मैं अपने बूढ़े और निरीह पिता की आंखों में पीड़ा के आंसू और आपके प्रति एक अव्यक्त भय की छाप भुला न पाऊं तो क्या आप मुझे दोषी मानेंगे?''
विश्वामित्र हंस पड़े, ''तुम ठीक कहते हो राम! मुझे न केवल यह ध्यान रखना होगा कि अपने पिता के व्यवहार और व्यक्तित्व के अनेक दोषों को जानते हुए भी तुम्हारे मन में उनके प्रति स्नेह और सम्मान की भावना है, वरन् यह भी याद रखना होगा कि तुम स्वतंत्र चिंतन करने वाले, निर्भीक, तेजस्वी वीर भी हौ। निश्चित रूप से मैंने तुम्हारे पिता का मन दुखाया है, किंतु राम! जीवन में अनेक बार धर्म की रक्षा के लिए कटु होकर अन्य जनों का मन दुखाना पड़ता है।''
वह बड़े ही मीठे स्वर में बोले, ''राम! मैंने अपनी बाजी तुम पर लगाई है पुत्र! इसलिए तुमसे कुछ स्पष्ट बातें करना चाहता हूं। यदि तुम मेरी अपेक्षाओं पर खरे उतरे तो तुम्हें अपने साथ सिद्धाश्रम ले जाऊंगा, और यदि ऐसा न हुआ तो तुम्हें और लक्ष्मण को यहीं से लौटा दूंगा।''
राम चकित रह गए। चलने से पूर्व उन्हें सब कुछ बताया गया था। पिता और गुरु का विवाद। पिता का संकोच, गुरु की कटुता। कितना आग्रह और कितने आश्वासन। गुरु विश्वामित्र सिद्धाश्रम से चलकर केवल उन्हें लेने के लिए अयोध्या आए थे। इतना प्रयास, इतना उद्यम! और अब वह कह रहे हैं कि उन्हें वह यहीं से लौटा देंगे। कैसा कौतुक है!
और लक्ष्मण की आंखों में जैसे एक आशंका समा गई। उन्हें हाथ में आई एक आकर्षक वस्तु छिनती-सी नजर आई। विश्वामित्र उन्हें वापस अयोध्या भेज देंगे। अयोध्या उन्होंने पचासों बार देखी है। ये वन-उपवन, नदी-पर्वत-लक्ष्मण यह सब कब देखेंगे। अब तो सब कुछ भैया राम पर निर्भर था...।
''मैं समझा नहीं गुरुवर?'' राम बोले।
''विस्तार से समझाता हूं पुत्र!'' विश्वामित्र प्रवचन की मुद्रा में बैठ गए, ''मेरा और वसिष्ठ का मतांतर बहुत प्रसिद्ध है राम!'' विश्वामित्र बोले, ''मुझे उनकी ईमानदारी पर पूरा विश्वास है, फिर भी अनेक विषयों में मैं उनसे सहमत नहीं हो पाता। वे बातें बाद की हैं किंतु! वसिष्ठ ने तुम्हें मेरे साथ भेज दिया, क्योंकि वह जानते हैं कि यदि तुम मेरे साथ न आए होते तो भी मैं अपना काम करवा लेता। पुत्र! हम जिसे ऋषि कहते हैं, वह अनासक्त बुद्धिजीवी है। तुम न आते तो मैं किसी अन्य राजकुमार से वह कार्य करवाता। ऐसी स्थिति में सम्राट् दशरथ का अहित भी हो सकता था-इसे वसिष्ठ समझते हैं।''
|
- प्रथम खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- द्वितीय खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- बारह
- तेरह