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उपन्यास >> दीक्षा

दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14995
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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दीक्षा

सात

 

अभी पूरी तरह अंधकार नहीं हुआ था, किन्तु शाम का धुंधलका काफी घना हो गया था। गौतम को बाहर गए, काफी समय हो चुका था; और अहल्या सोच रही थी कि उन्हें अब लौट आना चाहिए था। रात के अंधकार में, वन में अकेले घूमना, बहुत सुरक्षित नहीं था। और अब तो आश्रम के निर्जन हो जाने के कारण, वन्य-पशुओं का साहस भी बढ़ता जा रहा था। पहले जो पशु आश्रम की सीमा तक आते भी डरते थे, वे अब आश्रम की सीमाओं का अतिक्रमण करने लगे थे। दिन के समय तो नहीं, किन्तु रात के समय उनके आक्रमण का भय उत्पन्न हो गया था।

पिछले कई दिनों से गौतम और अहल्या, दोनों ही इस विषय को लेकर विशेष रूप से चिन्तित रहे थे। अंत में उन्होंने अपनी कुटिया को अधिक सुरक्षित बनाने का निर्णय लिया था। आज ही प्रातः उन्होंने यह कार्य प्रारम्भ किया था, और दिन-भर के कड़े परिश्रम के पश्चात पति-पत्नी ने संध्या समय तक उसे किसी तरह पूरा कर लिया था। कुटिया के चारों और लकड़ी की एक मजबूत बाढ़ बन गई थी, और किसी वन्य-पशु के, कुटिया-क्षेत्र में प्रविष्ट होने का भय प्रायः नहीं रह गया था। वानर तथा मनुष्य की बात अलग थी, वानर हिंस्र नहीं थे, और सीरध्वज के राज्य में मनुष्य के अपराधों की संख्या नगण्य थी। इसलिए कुटिया-क्षेत्र के भीतर जोखिम नहीं था।

गौतम इस काम से निबट कर, वन में चले गए थे; ताकि थोड़ा बहुत ईधन तथा अगले दिन की आवश्यकतानुसार कुछ फल ले आएं।

दिन-भर शत माता-पिता को कार्य करते देखता रहा था। भरसक वह उनके काम में हाथ बंटाता रहा था। कोई छोटी लकड़ी उठा कर इधर से उधर रख दी, कोई कुल्हाड़ी घसीट कर पिता के हाथ में पकड़ा दी, रस्सी का कोई टुकड़ा मां के पास पहुंचा दिया-ऐसे अनेक काम करते हुए, वह स्वयं को पर्याप्त महत्वपूर्ण समझता रहा था। लकड़ी के अनेक छोटे-छोटे टुकड़े, उठाकर उसने अलग रख लिए थे, ताकि अगले दिन, एक बाड़ वह स्वयं स्वतंत्र रूप से बना ले। मां को उसने पिता के ही समान ताकीद कर दी थी कि कल प्रातः यदि उसकी नींद न टूटे तो, वे उसे जगा दें, ताकि उषा काल में ही वह बाड़-निर्माण का काम आरम्भ कर दे-ऐसा न हो कि वह सोया ही रह जाए, और सूर्य सिर पर चढ़ आए। ऐसी स्थिति में, संध्या तक उसका काम पूरा नहीं हो पाएगा...

इस समय तक वह काफी थक गया था और सोना चाह रहा था, किंतु पिता के लौटने की प्रतीक्षा भी थी। कदाचित् यही प्रतीक्षा उसे सोने नहीं दे रही थी। सोने के इस प्रयत्न में थोड़ी-थोड़ी देर बाद, आंखें खोलकर पूछने लगता, ''पिताजी आए मां?''

इन दिनों वह पिता से बहुत अधिक हिल गया था। वह पहले के समान शत नहीं रहा था कि दिन-भर यदि पिता से भेंट न भी हो तो वह उन्हें याद ही न करे, अब उसका मानव-लोक केवल दो मनुष्यों तक सीमित हो गया था। उन दोनों में एक भी थोड़ी देर के लिए इधर-उधर हो जाता, तो वह उसकी रट लगा देता था।

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    अनुक्रम

  1. प्रथम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. बारह
  24. तेरह

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