उपन्यास >> दीक्षा दीक्षानरेन्द्र कोहली
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दीक्षा
छः
प्रातः गौतम की आंखें खुलीं, तो उन्होंने देखा, अहल्या जगी हुई थी। शत के जग जाने के भय से, वह बिस्तर से उठी नहीं थी. अच्छा वह पूरी तरह सचेत थी। उसका व्यवहार पूर्णतः सहज, किंतु पहले की अपेक्षा कुछ अधिक कोमल था-जैसे उसका मस्तिष्क निरंतर सचेत रहकर उसे कोमल होने का आदेश दे रहा हो। गौतम कुछ चौके। कही ऐसा तो नहीं कि व्यवहार की यह कोमलता, मन को किसी दृढ़ता की प्रतिक्रिया हो-किस बात के लिए, मन को दृढ़ कर लिया है, अहल्या ने? कहीं ऐसा तो नहीं कि रात-भर सोच-सोचकर उसने अपने जीवन के साथ कोई खिलवाड़ करने का निर्णय ले लिया हो...।
गौतम ने अहल्या की आंखों में झांककर कुछ जानना चाहा; किंतु अभी पूर्णतः उजाला नहीं हुआ था। उस झुटपुटे में, अहल्ला की आंखों में, वैसा कोई भाव उन्हें नहीं मिला। उसके हाव-भाबों में भी वैसा कुछ नहीं था। फिर कैसे संदेह करते गौतम? और पूछ भी तो नहीं सकते थे। पूछने का अर्थ था-कल के सारे प्रसंग को पुनः छेड़ना, उसे पुनः जीवित करना। यह उचित नहीं था। संभव है, अहल्या उस घटना से कुछ उबर पाई हो। उसे फिर से उस पीड़ित मनःस्थिति में लौटाने का दुष्कृत्य क्यों किया जाए...।
गौतम का अपना मन भी तो ठीक नहीं था। अभ्यासवश उनकी आस ठीक समय पर खुल गई थी, किंतु बिस्तर से बाहर वे भी नहीं निकले। क्या करेंगे इतनी सुबह उठकर? क्या करेंगे, नदी पर जाकर स्नान कर?...यदि घाट पर किसी ने उन्हें देख लिया, तो प्रत्येक व्यक्ति उनकी ओर इंगित करेगा-'यह उसी अहल्या का पति गौतम है...।' फिर अब कौन यज्ञशाला में उनकी प्रतीक्षा कर रहा है। कौन-सा काम है, जो कुलपति के बिना रुका रहेगा।...कोई आचार्य नहीं, कोई बह्मचारी नहीं। उजाड़ आश्रम में प्रेत-सा अकेला गौतम यज्ञ करके क्या करेगा? कौन ऋषि मानकर उन्हें सम्मान देगा...अब यह आश्रम उजाड़ हो जाएगा। मनुष्य के अभाव में क्रमशः वन सघन होता जाएगा। जंगली पशु यहां विचरण करेंगे और उनके मध्य, चांडालों अथवा प्रेतों के समान तीन प्राणी होंगे-गौतम, अहल्या और शतानन्द। क्या होगा स्नान से? क्या होगा यज्ञ से? क्या होगा ध्यान-मनन से? और क्या होगा ज्ञानार्जन से। जो होना था, वह हो चुका है। इन्द्र जीत चुका है-वे पूर्णतः पराजित हो चुके हैं।...संपूर्ण आर्यावर्त के सर्वश्रेष्ठ ऋषि बनने की महत्वाकांक्षा तो दूर, मिथिला प्रदेश में भी उनका महत्त्व किसी अभिशप्त प्रेत से अधिक नहीं है...और वे देवराज इन्द्र को शाप देने की सोच रहे थे...।
अहल्या ने थोड़ी देर प्रतीक्षा की; किंतु जब बाहर पूरी तरह उजाला हो गया और गौतम ने बिस्तर नहीं छोड़ा, तो अहल्या को पूछना ही पड़ा, ''स्वामि! आज स्नान के लिए विलंब नहीं हो गया?''
''हुं।'' गौतम ने करवट ली।
''स्वामि!''
''हां।''
''समय व्यतीत हो रहा है।''
''अहल्या! अब मैं ऋषि नहीं रहा। साधारण गृहस्थ हो गया हूं।''
गौतम अपनी पीड़ा छिपा नहीं सके। वाक्य मुख से निकल ही गया। अहल्या के चेहरे पर अपने वाक्य की प्रतिक्रिया देखने का साहस नहीं कर सके। व्यस्तता में उठकर, कुटिया से निकल गए।
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- प्रथम खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- द्वितीय खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- बारह
- तेरह