उपन्यास >> दीक्षा दीक्षानरेन्द्र कोहली
|
0 |
दीक्षा
अहल्या के मन को धक्का-सा लगा। उसे अपनी पीड़ा भूल गई। गौतम के मन की पीड़ा का कुछ आभास होने लगा था।...ठीक ही तो कहते हैं गौतम। वे ऋषि कैसे रह सकते हैं-वह भी समाज से बहिष्कृत। वन्य-पशु से। क्या अहल्या को पत्नी का अधिकार देने के लिए, गौतम को उसका इतना बड़ा मूल्य चुकाना होगा?...अहल्या सिहर उठी। ज्ञान, यश और सम्मान के क्षेत्र में निरंतर आगे बढ़ते हुए, ऋषि गौतम को नियति के एक हल्के-से धक्के ने क्या बना दिया। अहल्या के साथ रहकर तो गौतम सचमुच एक अभिशप्त प्रेत मात्र होकर रह जाएंगे...और शत? शत का क्या होगा? ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र से बहिष्कृत, सभ्यता और संस्कृति से दूर, समाज और सम्मान से अपरिचित एक जड़ जंगली पशु! और किस के कारण? स्वयं अपनी मां के कारण!...क्या अहल्या अपने पति और पुत्र के लिए अब दुर्भाग्य की छाया मात्र रह गई है?...कल की उस दुर्घटना के पश्चात् भी उसे अपने-आपसे घृणा हो गई थी-किंतु उसका यह रूप तो और भी घृणित है, और भी निन्दनीय...।
अहल्या धीरे से बिस्तर से बाहर निकली। शत शांत पड़ा सोता रहा, अहल्या ने धीरे से निःशब्द कुटिया का द्वार खोला और बाहर निकल आई। इधर-उधर देखा, गौतम कहीं दिखाई नहीं पड़े...कहीं वह नदी की ओर तो नहीं चले गए? अहल्या प्रतीक्षा करती रही; पर गौतम लौटते दिखाई नहीं पड़े।
वह हताश होकर, गोशाला की ओर चल पड़ी। पता नहीं, गौतम कहां गए हैं। संभव है, यहीं-कहीं हों-थोड़ी देर में लौट आएं। वैसे भी अभी थोड़ी देर में शत जाग जाएगा। उठते ही वह दूध के लिए रोने लगेगा फिर दूध की व्यवस्था का अवकाश भी नहीं मिलेगा।...उसके जागने से पहले अहल्या को कम से कम, डूंडी गाय को दुह लेना चाहिए।
गोशाला में उसे प्रवेश करते देख, डूंडी जोर से रंभाई। अहल्या के मन में कहीं एक ललक उठी, वह दौड़कर डूंडी के पास पहुंची, और उसके माथे को सहलाने लगी। डूंडी जोर-जोर से रंभा रही थी, और अपनी जीभ निकालकर, उसे प्यार करने वाले हाथ को चाट लेना चाह रही थी। उसकी आंखों में स्नेह-भरा उपालंभ था : 'कल किसी ने मेरी देख-भाल क्यों नहीं की? कल मेरे पास कोई क्यों नहीं आया?'
अहल्या डूंडी से लिपट गई, ''मुझे क्षमा कर डूंडी! कल हम दोनों में से किसी को अपना भी होश नहीं था। मुझे क्षमा कर डूंडी।''
अहल्या का मन एक साथ ही हंस भी रहा था और रो भी रहा था। कल दिन-भर पड़ी, वह अपनी पीड़ा में छटपटाती रही। गौतम दिन-भर उसे संभालते रहे। और इधर अभ्यागत, ऋषि-मुनि, आचार्य और ब्रह्मचारी तो दूर, साधारण कर्मकार भी चुपचाप आश्रम छोड़कर चल दिए, जैसे अहल्या के रूप में आश्रम में कोढ़ फूट रहा हो, जिससे सबका बचना अनिवार्य हो। किसी ने इन पशुओं का भी ध्यान नहीं किया। किसी ने उन्हें दाना-पानी नहीं दिया, कोई उन्हें चराने के लिए जंगल में नहीं ले गया...और कहीं अहल्या का मन हंस रहा था, कोई तो है इस आश्रम में, जिस पर, जिसके स्नेह पर, कल की दुर्घटना का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। कोई तो है...कोई तो है...।
दो वर्ष हो गए उस बात को। डूंडी पहली ही बार ब्याने की तैयारी कर रही थी। उन्हीं दिनों उसकी वन में किसी पशु से टक्कर हो गई थी। पता ही नहीं चला कि कौन-सा पशु था। चरवाहे डूंडी को आश्रम में लाए तो वह बुरी तरह लहूलुहान थी और उसका एक सींग भी टूट गया था। कितनी पीड़ा थी उसकी आंखों में। सींग टूट जाने के कारण ही अहल्या ने उसका नाम डूंडी रखा था। उसे डूंडी से अतिरिक्त स्नेह हो गया था; कितनी सेवा की थी उसने डूंडी की। दिन में कई-कई बार औषध लगाई थी। पास बैठ-बैठ कर, उसे चारा खिलाया था। और जब तक डूंडी स्वस्थ हुई, तब तक वह अहल्या से असाधारण रूप से हिल गई थी।
|
- प्रथम खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- द्वितीय खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- बारह
- तेरह