उपन्यास >> दीक्षा दीक्षानरेन्द्र कोहली
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दीक्षा
तेरह
विश्वामित्र ने प्रांगण में प्रवेश किया।
प्रणाम और आशीर्वाद के शिष्टाचार के बीच, सीता ने राम को देखा-ऊंचा शरीर, चौड़े कंधे, शरीर पर कहीं अनावश्यक चर्बी नहीं, और कठिन प्रशिक्षण में तपा हुआ, दृढ़ पेशियों का सुगठित शरीर, सांवला रंग, सहज, भोले चेहरे पर बड़ी-बड़ी गहरी-गंभीर आंखें, तीखी नाक, और होठों की मुस्कान...सीता रुक गईं। इस मुस्कान के आगे कुछ नहीं सोचा जाता, कुछ भी नहीं।...
गुरु बैठ गए। उनके दाएं-बाएं राम और लक्ष्मण। बैठे। ब्रह्मचारियों की टोली पीछे बैठ गई।
विश्वामित्र ने कुशल-क्षेम-संबंधी औपचारिक प्रश्न पूछकर राम की ओर देखा-राम के चेहरे पर उल्लसित गंभीरता थी, जैसे कुछ पाकर, उसके उल्लास के साथ, अपने दायित्व-बोध से गंभीर हो गए हो। जैसे, मन मचल-मचलकर कुछ मांग रहा हो, और मस्तिष्क पुचकार रहा हो, 'तनिक रुक जा। कुछ सोच ले। जल्दी न मचा।'
विश्वामित्र की दृष्टि लक्ष्मण पर जा टिकी। लक्ष्मण की किशोर आकृति गंभीरता से मुक्त थी, उनके मुख पर उल्लास ही उल्लास था। अपनी तल्लीनता में उनके होंठ, कुछ इस भंगिमा में खुल-से गए थे, जैसे उनमें से स्वर फूटेगाः 'भामी!'
विश्वामित्र आश्वस्त होकर मुस्कराए। किंतु सीता को देख लेना भी आवश्यक था। सीता का सहज उल्लास, किंचित लज्जा की लालिमा, नेत्रों का बार-बार कुछ देखने को उठना और झुक जाना, होंठों का कुछ कहने को उद्यत होना, और मौन रह जाना...।
विश्वामित्र को अपने निर्णय की पुष्टि ही पुष्टि मिली। उनका मन कर्म के लिए व्याकुल हो उठा। बोले, ''राजन्! शिव-धनुष अजगव तुम्हारे पास धरोहर के रूप में पड़ा है। यह बात अब जगत्विख्यात है कि तुमने यह प्रण किया है कि जो पुरुष उस धनुष को परिचालित करेगा, उसके साथ तुम अपनी वीर्य-शुल्का पुत्री सीता का विवाह करोगे।, मैं चाहता हूं कि यह अवसर राम को भी दिया जाए।''
सीरध्वज की आंखें, सीता की ओर घूम गईं। पिता-पुत्री की दृष्टि मिली। सीता ने अपनी स्वीकृति दी और आंखे लजाकर झुक गई।...सीरध्वज आशा और निराशा के द्वन्द्व में जा फंसे। वह नहीं जानते थे कि परिणाम क्या होगा।...एक और आनन्द था, कि सीता का राम के साथ विवाह संभव है; और दूसरी ओर एक आशंका भी। यदि राम अजगव-संचालन न कर सके, तो इस आशा के खंडित होने पर कितनी पीड़ा होगी सीरध्वज को।...और अपनी उस पुत्री का ध्यान भी उन्हें हो आया, जो आज तक एक उत्सुकता से टंगी हुई, भीषण मानसिक यातना का अनुभव कर रही है। वह नहीं जानती कि उसका विवाह कब होगा, किसके साथ होगा। हर बार कोई नया पुरुष आता है। शिव-धनुष प्रस्तुत किया जातीं है। सीता को हर बार पीड़ा की अग्नि-परीक्षा में से गुजरना पड़ता है। हर बार...पर इस बार स्थिति एकदम भिन्न है। आज तक ऐसी किसी भी परीक्षा में, पर्रोक्षार्थी के लिए सीता के मन ने स्वीकृति नहीं दी थी। किंतु आज सीता का मन उसके चेहरे पर आ बैठा है, उसकी आंखें बोल रही हैं...इससे पूर्व आने वाले परीक्षार्थी पुरुषों की असफलता के लिए सीता ने प्रार्थना की थीं; और आज वही सीता राम की सफलता के लिए ईश्वर से प्रार्थना करती-सी प्रतीत हो रही है...।
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- प्रथम खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- द्वितीय खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- बारह
- तेरह