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उपन्यास >> दीक्षा

दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14995
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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दीक्षा

सीरध्वज ने एक बड़े-से प्रश्न-चिहृ में फंसी, मुक्त होने के लिए फड़फड़ाती आशा के साथ, मुड़कर, अपने पीछे खड़े अनुचरों को देखा, ''शिव-धनुष प्रस्तुत किया जाए।''

शिव-धनुष के लाए जाने तक का अंतराल, सबके लिए ही बड़ा कठिन समय था। सीरध्वज, शतानन्द सीता, सुनयना, विश्वामित्र, राम, लक्ष्मण-सभी जैसे अपनी-अपनी उलझनों में खोए हुए थे। लक्ष्मण का चंचल किशोर मन भी, जैसे समय की गंभीरता से त्रस्त हो उठा था। अगले कुछ क्षणों में, कुछ बहुत महत्त्वपूर्ण घटित होने वाला था-जो भविष्य में होने वाली अनेक घटनाओं का स्वरूप निर्धारित करेगा। अगले कुछ क्षणों में कुछ बहुत महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों का ही नहीं, इस देश के भविष्य का इतिहास लिखा जाएगा...।

कोई बात चल नहीं पा रही थी। किसी बात का सूत्र कहीं से उठाया जाता, तो अगले ही क्षण, अनजाने ही वह कुछ इस प्रकार सूक्ष्म होकर विलीन हो जाता कि प्रत्येक व्यक्ति की पकड़ से बाहर हो जाता। ऐसी मनःस्थिति में बातचीत संभव नहीं थी। प्रतीक्षा में बातचीत नहीं होती, केवल प्रतीक्षा होती है। और सायास की गई बातचीत, इस तथ्य को और अधिक मुखर कर देती है कि यह प्रयास, प्रतीक्षा को भुलाने के लिए किया जा रहा है।..

अंततः सीरध्वज के अनुचर, शिव-धनुष को लेकर आ पहुंचे। शिव-धनुष एक विराट् शंकट पर रखा हुआ, विचित्र प्रकार का एक यंत्र था। सैकड़ों मनुष्य धक्का देकर उस शंकट को यहां तक लाए थे। कदाचित् वह बार-बार इसी प्रकार लाया जाता था। शंकट को धकेलकर लाने वाले लोग बुरी तरह हांफ रहे थे। उनके शरीर स्वेद-धाराओं से पूरी तरह भीगे हुए थे।

राम को लगा, इस शंकट को पशुओं द्वारा खींचा जाना चाहिए था। पर कदाचित् शिव-धनुष होने के कारण, इस यंत्र का इतना अधिक सम्मान था कि उसे मनुष्य ही खींचा करते थे...अंध श्रद्धा और अंधविश्वास के सम्मुख बुद्धि बेचारी निष्क्रिय हो रही थी।

राम ने खड़े होकर, उत्सुक दृष्टि से उस यंत्र को देखा। यह शिव-धनुष था अजगव। अनेक देवताओं, राक्षसों, किन्नरों, नागों और मनुष्यों ने इसे संचालित करने का प्रयत्न किया था, किंतु आज तक कोई भी सफल नहीं हो सका था।...राम का ध्यान, उसे खचिकर यहां तक लाने वाले मनुष्यों के दल की ओर चला गया। कितनी बुरी तरह थक गए थे बेचारे। जिस धनुष को यहां तक लाना, इतने मनुष्यों के लिए असाध्य कार्य हो रहा था, उस धनुष से शिव ने किसी समय युद्ध किया था। वह कैसे इसे उठाए-उठाए चलते होंगे? निश्चय ही, उनके पास इसे चलाने के लिए, कोई शक्ति रही होगी, कोई ऊर्जा, कोई इंधन।...किंतु सीरध्वज उस ईधन के रहस्य से परिचित नहीं हैं। कोई भी परिचित नहीं है। तभी तो मनुष्य अब इस शंकट को चलाता नहीं-इसे पशुवत खींचता है।

राम की उत्सुक दृष्टि, उस यंत्र में, उन सारे उपकरणों को खोज रही थी, जिनका ज्ञान उन्हें गुरु विश्वामित्र ने दिया था। किंतु इतनी दूर से उपकरणों का संधान कदाचित् संभव नहीं था। राम विकट उत्कंठा से गुरु की आज्ञा की प्रतीक्षा कर रहे थे।

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    अनुक्रम

  1. प्रथम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. बारह
  24. तेरह

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