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उपन्यास >> दीक्षा

दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14995
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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दीक्षा

चार

 

राम की आंखों में उन्हें विदा करती हुई माता कौसल्या तथा सुमित्रा और पिता दशरथ के चित्र अंकित थे। कौसल्या उनके जाने से दुखी थीं, कहीं आशंकित भी थीं; पर उनकी दृष्टि में ऋषि विश्वामित्र के प्रति श्रद्धा तथा विश्वास दोनों ही थे। राम कुछ आश्चर्यचकित भी थे, कैसे मां ने ऋषि पर इतना विश्वास किया? इतना विश्वास तो वह वसिष्ठ पर भी नहीं करती थी, जो राजगुरु और राजपुरोहित दोनों थे; जिन्हें अयोध्या का राजकुल वर्षों से जानता था और सम्राट् की ओर भी मां ने इस विश्वस्त दृष्टि से कभी नहीं देखा। फिर ऋषि विश्वामित्र में ऐसी कौन-सी बात है कि मां उन पर भरोसा करती हैं? क्या ऋषि इतने समर्थ, इतने निस्पृह, इतने न्यायप्रिय हैं? और माता सुमित्रा सदा के समान दृढ़! दो टूक। कर्त्तव्य की जाग्रत अग्निनिष्ठ-सी। माता सुमित्रा की आकृति पर कभी द्वन्द्व नहीं होता, कभी शिथिलता नहीं होती। कौसल्या पच्चीस वर्षों के राम को भेजकर चिंतित हैं, किंतु सुमित्रा तेरह वर्ष के लक्ष्मण को आग्रह के साथ भेज रही हैं। ऋषि ने सम्राट् से केवल राम को मांगा था; किंतु लक्ष्मण की साथ जाने की जिद और माता सुमित्रा का रोकने के स्थान पर उसे आदेश देना : "पुत्र! भाई के साथ जा।'' राम मन में कहीं गद्गद हो उठते हैं-मां-बेटे दोनों की दृढ़ता और तेज को देखकर। यदि सुमित्रा ने इस प्रकार अपनी समान शक्ति माता कौसल्या को संभालने में न लगा दी होती, तो कौसल्या जाने कब की दूटकर बिखर गई होती। सुमित्रा वास्तविक अर्थों में क्षत्राणी हैं...।

...और सम्राट्! सम्राट् को इतना दीन राम ने कभी नहीं देखा। इनके प्रति पिता के मन में इतना मोह होगा-यह राम ने कभी नहीं सोचा था। अयोध्या की समस्त प्रजा जानती है कि दशरथ की प्रिय रानी कैकेयी है. स्वभावतः ही दशरथ का प्रिय पुत्र फिर भरत ही होना चाहिए। भरत है भी प्रिय होने योग्य। फिर सम्राट् ने उसे युवराज बनाने का वचन उनके नाना को दे रखा है...किंतु राम अपनी आंखों से देखा झुठला नहीं सकते। उन्होंने देखा है कि सम्राट् अपनी सत्य प्रतिज्ञा से स्थलित होने को भीं प्रस्तुत थे। यदि वसिष्ठ ने विश्वामित्र का समर्थन न किया होता और सम्राट् विश्वामित्र से भयभीत न होते तो कदाचित् वह अपनी प्रतिश्रुति की चिन्ता न करते हुए, उन्हें ऋषि के साथ भेजना अस्वीकृत कर देते।

किंतु इस सारे दृश्य में कैकेयी नहीं थी। उसे सूचना ही नहीं मिली? वह उनके और लक्ष्मण के प्रति उदासीन है? अथवा वह उनके जाने से प्रसन्न है? राम का मन अभी कोई निर्णय नहीं कर पाता।

राम की दृष्टि बहिर्मुखी हुई।

राजपथ पर भागते हुए तीन रथों में से पहले में स्वयं ऋषि, राम तथा लक्ष्मण थे। पीछे के दो रथों में ऋषि के साथ आए ब्रह्मचारी तथा उनका सामान था। ऋषि विश्वामित्र आत्मलीन बैठे थे। लक्ष्मण आने वाले जोखिमों से अनजान, एक उत्सुक बालक के समान राजपथ के दोनों ओर खड़े नागरिकों को तन्मय होकर देख रहे थे। और वे नागरिक? कुछ लोग उदास थे; और कुछ केवल तमाशा ही देख रहे थे।

रथ निरंतर भागते हुए नगर-द्वार की ओर बढ़ रहे थे।

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    अनुक्रम

  1. प्रथम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. बारह
  24. तेरह

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