उपन्यास >> दीक्षा दीक्षानरेन्द्र कोहली
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दीक्षा
रथ के नगर-द्वार के समीप पहुंचते ही, द्वार पर तैनात सैनिक टुकड़ी सावधान हो गई। नायक ने रथ को रुकने का संकेत किया।...सारथी ने अश्वों की वल्गा खींच ली; किंतु तब तक नायक ने रथ के ध्वज, सारथी तथा रथारूढ़ लोगों को कदाचित् पहचान लिया था। उसने सारथी को आगे बढ़ने का संकेत किया और राजकुमारों को प्रणाम करने के लिए झुक गया।
सारथी ने वल्ग़ा ढीली छोड़ दी, और घोड़ों की गति बढ़ाने के लिए कशाधारी भुजा ऊपर उठाई...किंतु तभी ऋषि विश्वामित्र का गंभीर स्वर सुनाई दिया, ''सारथे! रथ रोक दो।''
सारथी ने आश्चर्य से ऋषि की ओर देखा, किंतु उनकी आज्ञा का पालन किया। पीछे आने वाले रथ भी स्वतः ही रुक गए। रथों को रुकते देखकर सैनिक-टुकड़ी के नायक की आकृति पर घबराहट के चिह्न प्रकट हुए; वह भागता-सा निकट आया।
''मैंने आगे बढ़ने का संकेत दे दिया था सारथे!'' उसकी वाणी स्थिर नहीं थी।
''हां नायक!'' विश्वामित्र रथ से नीचे उतरते हुए बोले, ''किंतु मैंने रुकने के लिए कहा था। आओ पुत्र राम! वत्स लक्ष्मण! रथ से नीचे उतर आओ। अब आगे ही यात्रा पैदल ही होगी पुत्र! अभी सारथे तुम रथ को वापस राजभवन लौटा ले जाओ। कोई प्रश्न करे तो कह देना कि मैंने ऐसी ही आज्ञा दी थी।''
पिछले दोनों रथों के ब्रह्मचारी भी बड़ी तत्परता से अपने सामान समेत नीचे उतर आए थे।
अपने नायक सहित सारे सैनिक विस्मित थे और रथ का सारथी असमंजस में पड़ा हुआ था; किंतु राम और लक्ष्मण दोनों ही पूर्ण सहजता पूर्वक रथ से नीचे उतर आए थे।
''सारथी! रथ लौटा ले जाओ।'' राम ने नम्र वाणी में आदेश दिया, ''और नायक! अपना विस्मय त्याग, हमें नगर से बाहर जाने का मार्ग दो।''
''किंतु राजकुमार!'' नायक ने कुछ कहना चाहा।
''आदेश का पालन करो।'' राम का स्वर पहले से अधिक गंभीर था।
सारथी ने रथ मोड़ लिया; नायक और सैनिक अपने स्थान पर लौट गए।
''आओ वत्स!'' गुरु बोले; और ब्रह्मचारियों को पीछे आने का संकेत करते हुए वे नगर-द्वार से बाहर निकल गए।
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- प्रथम खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- द्वितीय खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- बारह
- तेरह