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उपन्यास >> दीक्षा

दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14995
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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दीक्षा

आठ

 

नये आश्रम के कुलपति के रूप में गौतम का अभिषेक हुआ।

आज गौतम का न तन स्थिर था, न मन, बड़ी कठिनाई से वे स्वयं को साधे हुए थे। किंतु प्रति-क्षण उन पर भारी होता जा रहा था। वह नहीं जानते थे कि वह कब तक स्वयं को संभाल पाएंगे, और कब कातर हो, टूटकर बिखर जाएंगे। उनके मुख पर कुलपति का सहज भाव नहीं था। जैसे वे स्वयं कुलपति न हों, कुलपति का अभिनय कर रहे हों...

जनकपुर पहुंचने पर, उनका सहज स्वागत हुआ था, मानो लोगों को यह पूर्वाभास हो कि वे आ रहे हैं। संभव है, आचार्य ज्ञानप्रिय ने पहले ही से भूमिका तैयार कर रखी हो। सम्राट ने भी उन्हें कुलपति के रूप में तत्काल मान्यता दे दी थी; और उनके पद-ग्रहण के उत्सव की तैयारी का आदेश दिया था।

किसी ने उनसे अहल्या की चर्चा नहीं की थी। किसी ने नहीं पूछा वह कहां है? कैसी है? क्या वे उसे छोड़ आए हैं? अहल्या की चर्चा मानो निषिद्ध थी। उसके अस्तित्व को सायास भुलाया जा रहा था।

अभिषेक की तैयारी सम्राट् सीरध्वज के आदेशानुसार हुई थी। उन्होंने इस विषय में स्पष्ट रूप से अपनी विशिष्ट रुचि और अनुकंपा दिखाई थी। शत को गोद में लेकर चूम लिया था और पूछा था, ''मेरे भावी राज-पुरोहित। कैसे हो?'' ऐसा कहने के लिए सम्राट् बाध्य नहीं थे-पर गौतम ने अनुभव किया, सम्राट् जान-बूझकर अपनी भावी नीति की घोषणा कर रहे हैं। वे शब्दों में कहे बिना ही स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि गौतम के व्यक्तित्व में उनको पूर्ण निष्ठा है, वे गौतम की सहायता करेंगे। उनकी समस्त महत्वाकांक्षाएं पूरी करेंगे। उनके पुत्र को राज-पुरोहित बनाएंगे। पर इन सबका मूल्य गौतम को देना होगा-अहल्या का त्याग।

क्या सीरध्वज अहल्या को दोषी मानते हैं?

गौतम के पास इसका कोई उत्तर नहीं था। पर इतना वे निश्चित जानते थे कि उन्हें यह मूल्य देना ही होगा...

गौतम यज्ञशाला में बैठे। उनके साथ उपकुलपति के रूप में बैठाए गए आचार्य ज्ञानप्रिय। यह भी नई बात थी कि आचार्य अमितलाभ को उपकुलपति बनाए जाने की भी अनुमति सम्राट् ने नहीं दी थी। इस प्रथम यज्ञ में सम्राट् उपस्थित थे...

विधिवत् कार्य आरम्भ हुआ। पवित्र मंत्रों के उच्चारण के साथ यज्ञ सम्पन्न हुआ।

और इसी क्षण से गौतम ने विधि को बदल डाला। यज्ञ से उठकर उन्होंने सम्राट् को आशीर्वाद नहीं दिया, आश्रमवासियों के सुख की कामना नहीं की। उन्होंने मंत्र-अभिशिक्त जल अंजलि में लिया, सूर्य की ओर मुख किया और स्थिर, तथा उच्च स्वर में बोले, ''मैं आश्रम का कुलपति गौतम, इस पवित्र जल को हाथ में लेकर, आज देवराज इन्द्र को शाप देता हूं। अपनी दुश्चरित्रता के कारण, इन्द्र, देवराज होते हुए भी आज से आर्यावर्त में सम्मान्य तथा पूज्य नहीं होगा। उसे किसी यज्ञ, हवन, पूजा, ज्ञान-सम्मेलन अथवा किसी भी शुभ कार्य में आमंत्रित नहीं किया जाएगा। आज से देवोपासना में इन्द्र का कोई भाग नहीं होगा, उसकी पूजा नहीं होगी।''

और गौतम ने जलांजलि पृथ्वी पर छोड़ दी।

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    अनुक्रम

  1. प्रथम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. बारह
  24. तेरह

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