उपन्यास >> दीक्षा दीक्षानरेन्द्र कोहली
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दीक्षा
सभा सन्न रह गई। यह ऋषि का शाप था। क्या यह मान्य होगा?
तभी सम्राट् अपने आसन से उठकर खड़े हो गए, ''मैं मिथिला नरेश सीरध्वज घोषणा करता हूं कि जब तक कुलपति गौतम, अपने पद की मर्यादा का पालन करेंगे, उनके शाप की रक्षा का दायित्व मुझ पर होगा।''
और सम्राट् यज्ञशाला छोड़कर चले गए।
जो कुछ हुआ, वह गौतम के लिए भी आकस्मिक ही था। सम्राट् की कृपा का आश्वासन होते हुए भी, उन्हें यह विश्वास नहीं था कि वह उनके शाप की रक्षा का वचन देंगे। आज गौतम ने इन्द्र को दंडित किया था, यद्यपि उसके अपराध की तुलना में दंड बहुत कम था किन्तु उसे दंडित तो किया ही गया था...गौतम को प्रसन्न होना चाहिए था...किन्तु सम्राट् का प्रतिबंध... क्या है कुलपति की मर्यादा? अहल्या का त्याग। यदि वह अहल्या को पत्नी के रूप में अंगीकार करेंगे तो वह कुलपति की मर्यादा से पतित होंगे...शायद यही। ...सम्राट् यही चाहते होंगे। सम्राट् स्वयं तो बंधे ही थे, गौतम को भी बांध गए थे...
शिथिल मन से गौतम अपनी कुटिया की ओर चल पड़े। उनके पग उठ नहीं रहे थे। वे कुछ ही क्षणों में कई वर्ष बूढ़े हो गए थे।
कुटिया के द्वार पर शत खड़ा था।
''मां, कब आएंगी पिताजी?...
गौतम बेटे को छाती से चिपकाकर रो पड़े। क्या बताते पुत्र को। इन्द्र को दंडित करने को कितना मूल्य चुकाना पड़ा था उन्हें और अहल्या को।
विस्वामित्र मौन हो गए।
सब लोगों की दृष्टि गुरु पर टिक गई थी, किन्तु गुरु ने अपनी आंखें बन्द कर ली थीं। वे मानो ध्यानस्थ हो गए थे। रात काफी हो गई थी। वे शायद आगे की कथा, आज नहीं सुनाएंगे।...पर लक्ष्मण ऐसी स्थिति को स्वीकार नहीं कर सकते थे। ऐसे स्थल पर कथा रोकने का अर्थ, जहां श्रोता का कलेजा उत्सुकता के मारे फटा जा रहा हो। और फिर वैसे भी कथा आज समाप्त हो ही जानी चाहिए-काफी समय हो गया, उसे खींचते हुए।
लक्ष्मण रुक नहीं सके, ''गुरुदेव! कथा आगे नहीं बढ़ेगी?''
विश्वामित्र ने आंखें खोल दीं। लक्ष्मण की ओर देखकर, हल्का-सा मुस्कराए, किंतु अपनी मुद्रा नहीं बदली। बोले, ''कथा मैंने जहां रोकी है, वह पच्चीस वर्ष पुरानी बात है। किंतु सौमित्र! कथा आज भी वहीं रुकी पड़ी है।''
''इसका क्या अर्थ हुआ ऋषिवर?'' लक्ष्मण विचलित हो उठे।
''देवी अहल्या आज भी उसी आश्रम में एकाकी तपस्या कर रही है, और प्रतीक्षा कर रही है कि समाज उन्हें पवित्र मानकर, गौतम के पास जाने की अनुमति दे। गौतम प्रतीक्षा कर रहे हैं कि सामाजिक अनुमति पाकर देवी अहल्या उनके पास आएं; और बालक शत, अब सीरध्वज का पुरोहित शतानन्द बनकर भी अपनी मां के लिए सामाजिक स्वीकृति तथा पिता से मिलन की प्रतीक्षा कर रहा है।''
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- प्रथम खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- द्वितीय खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- बारह
- तेरह