उपन्यास >> दीक्षा दीक्षानरेन्द्र कोहली
|
0 |
दीक्षा
ग्यारह
जनक और शतानन्द के आम्रवाटिका में प्रवेश करते ही, पुनर्वसु ने उन्हें सूचना दी कि गुरु उन्हें मिलने के लिए प्रस्तुत बैठे हैं।
वह उनकी अगवानी करता हुआ, विश्वामित्र तक ले गया। दोनों ने झुककर गुरु विश्वामित्र का अभिवादन किया; किंतु गुरु स्पष्ट देख रहे थे कि शतानन्द तथा सीरध्वज, दोनों का ही ध्यान, राम में अटका हुआ था।
सीरध्वज ने देखा-असाधारण रूप था, दोनों भाइयों का-अपार्थिव। सुंदर, तेजस्वी, पुष्ट और वीर। उनके शरीर, सामान्य आर्य राजकुमारों के समान कोमल, भद्दे आकार वाले तथा चर्बी से लदे हुए नहीं थे। इन दोनों के शरीरों ने विलास में नहीं, परिश्रम तथा शस्त्राभ्यास में आकार ग्रहण किया था। राम का वर्ण सांवला था, बड़ी-बड़ी स्वच्छ, ईमानदार, निर्भीक आंखें, चौड़ा माथा, तीखी नाक, मोहक हंसी से आवेष्टित होंठ, दृढ़ संकल्प वाली ठुड्डी। ऐसे ही तो एक राजकुमार की खोज थी सीरध्वज
को, अपनी वीर्य-शुल्का पुत्री सीता के लिए।...पर क्या, सीता के विवाह का प्रस्ताव राम मान जाएंगे?...और फिर अब तो बीच में, शिव-धनुष संचालन का प्रतिबंध भी था।...
''क्या ये ही सम्राट् दशरथ के राजकुमार राम और लक्ष्मण हैं?'' सीरध्वज विश्वामित्र की ओर उन्मुख हुए।
''हां राजन्। ये ही दाशरथि राम और लक्ष्मण हैं।''
''इनके आने के पूर्व ही इनके यश की सुगंध जनकपुर पहुंच चुकी है ऋषिवर!'' सीरध्वज अत्यन्त नम्र स्वर में बोले, ''यदि अपने मन की बात कहूं, तो आपके जनकपुर आने से तो मैं धन्य हुआ ही हूं, विशेष रूप से राम और लक्ष्मण का जनकपुर में स्वागत करते हुए, मैं अपूर्व आनन्द का अनुभव कर रहा हूं ऋषिवर! इन राजकुमारों के जनकपुर-आगमन को मैं शुभ मानूं?''
विश्वामित्र ने अपनी मर्यादा की सीमा को लांघकर, उन्मुक्त अट्टहास किया, ''आशंकाओं से पीड़ित और व्यथित न रहो सीरध्वज। राम नए युग का पुरुष है। पूर्वाग्रहों से मुक्त होओ। राम का आगमन सदा शुभ होता है। क्यों शतानन्द?''
शतानन्द के चेहरे पर कृतज्ञता, उल्लास और करुणा के भाव पुंजीभूत हो गए। बोले, ''ब्रह्मर्षि! मैं क्या कहूं, मेरी समझ में नहीं आता। मैं तो इस चमत्कार से चमत्कृत हूं। ऐसा अद्भुत कर्म, और ऐसा अद्भुत पुरुष, मैंने पहले कभी नहीं देखा। फिर इनका वय देखकर और भी विस्मित हो जाता हूं-कुमार वय और ऐसा चमत्कार?''
''राजपुरोहित!'' लक्ष्मण बोले, ''ऐसे अनेक चमत्कार और होंगे। भैया राम सचमुच अद्भुत हैं। मेरी मां करती हैं...।''
''लक्ष्मण! अपना प्रचार-विभाग बन्द करो।'' राम ने स्नेह भरे स्वर में डांटा।
गुरु हंसे, ''सौमित्र ठीक कहते हैं। राम सचमुच अद्भुत पुरुष हैं।''
शतानन्द विस्मय से राम की ओर देखते रहे, और फिर, जैसे अपने-आपसे ही बोले, ''सोचता हूं, मां को अपने सम्मुख देखकर, पिताजी को कैसा लगा होगा?''
|
- प्रथम खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- द्वितीय खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- बारह
- तेरह