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उपन्यास >> दीक्षा

दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14995
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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दीक्षा

राम को लगा, गुरु भी चिंतन की वही भूल कर रहे हैं, जो थोड़ी देर पूर्व स्वयं राम कर रहे थे। क्या राम की ही इच्छा सर्वोपरि है? सीता की कोई इच्छा नहीं? सीता की सहमति की किसी को चिंता नहीं?...

राम कुछ संकुचित हुए, किंतु कहना तो था ही, ''ऋषिवर! आपका संपूर्ण बल, इस विषय में मेरी इच्छा जानने पर है; पर जनक-कुमारी की भी अपनी कोई इच्छा होगी...''

विश्वामित्र विचलित नहीं हुए, ''तुम्हारा विचार बहुत ही उत्तम है वत्स! किंतु जनक-कुमारी की इच्छा जानने का हमारे पास कोई साधन नहीं है। ऐसी स्थिति में अपनी पुत्री की इच्छा जानने का दायित्व सम्राट् सीरध्वज पर है। वैसे वीर्यशुल्का घोषित होने के पश्चात् कन्या की इच्छा के विषय में क्या कहा जा सकता है?''

गुरु मौन हो गए। उनकी आंखें राम के चेहरे की ओर, प्रश्नवाचक मुद्रा में उठ गईं, जैसे पूछ रही हों क्या कहते हो?

''विवाह के लिए मैं प्रस्तुत हूं गुरुदेव!'' अंततः राम बोले, ''किंतु...''

''...किंतु बारात का क्या होगा?'' सारे वार्तालाप में लक्ष्मण पहली बार बोले, और जोर से हंस पड़े।

राम भी मुस्कराए, ''किंतु अजगव-परिचालन की युक्ति का क्या होगा!''

''पुत्र! मैंने कहा है, इस युक्ति का बोझ तुम मुझ पर छोड़ दो। आओ, तुम्हें युक्ति सिखाऊं। न केवल मैं तुम्हें अजगव-परिचालन की युक्ति बताना चाहता हूं साथ ही एक और निर्देश भी देना चाहता हूं।...उस यन्त्र में एक आत्म-विस्फोटक पदार्थ लगा हुआ है। मैं चाहूंगा पुत्र! तुम उस विधि को भी सीख लो, जिसके द्वारा आत्म-विस्फोटक पदार्थ, प्रेरित किया जा सकता है। उस पदार्थ को एक बार प्रेरित कर दिया जाए, तो वह अजगव का खंड-खंड कर देगा। इस कार्य से एक ओर तुम सीता से विवाह का प्रतिबंध पूर्ण कर, सीता का पाणिग्रहण करने में समर्थ होओगे, और दूसरी ओर, समस्त देव जातियों, आर्य सम्राटों और साधारण प्रजाजन को इस भय से मुक्त कर दोगे कि किसी समय यदि यह शिव-धनुष राक्षसों के हाथ में पड़ गया, तो वह इसकी सहायता से प्रजा का सर्वनाश कर डालेंगे।''

राम का द्वंद्व मिट गया। असामर्थ्य का बोध पिघलकर, अनस्तित्व में विलीन हो गया। वह पहले के समान निर्द्वन्द्व, आत्मविश्वासी सहज राम हो गए। उनके मुख पर अलौकिक उल्लास-सा छा गया। बोले, ''गुरुदेव! जीवन तो मुझे मेरे माता-पिता ने दिया है, किंतु उसे सार्थक करने का सारा श्रेय आपका है। यदि इन समस्त कृत्यों का उपकरण बनाने के लिए प्रकृति ने मुझे ही चुना है, यदि आपकी चयन-दृष्टि मुझ पर ही पड़ी है, तो मैं उसके लिए प्रस्तुत हूं।''

चपल लक्ष्मण, महिमा-मण्डित राम को देखते ही रह गए। कुछ नहीं बोले।

विश्वामित्र की आंखों में वात्सल्य था, और अधरों पर मंद हास। बोले, ''आओ पुत्र! अब पहले युक्ति सीख लो।''

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    अनुक्रम

  1. प्रथम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. बारह
  24. तेरह

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