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उपन्यास >> दीक्षा

दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14995
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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दीक्षा

बारह

 

सीता के सामने यह प्रश्न जीवन् में पहली बार नहीं आया था। पिता सीरध्वज ने उसे, अत्यन्त लाडली पुत्री के रूप में पाला था। पिता के प्रति असाधारण आदर-सम्मान, जनकपुर के राजप्रासादों का शील-शिष्टाचार, पिता का सम्राटत्व-कुछ भी पिता-पुत्री के बीच, कभी दीवार बनकर नहीं आया था। वयस्कता की ओर बढ़ते ही, सीरध्वज ने पुत्री की बुद्धि को समर्थ बुद्धि का पूरा महत्व देना आरम्भ कर दिया था। सम-धरातल पर, परस्पर विचार-विमर्श होता था। सीता सम्बन्धी किसी भी मामले में, सम्राट् ने पूर्णतः स्वयं निर्णय कभी नहीं लिया। सीता के विवाह के विषय में ही, वे स्वयं निर्णय कैसे ले लेते!

सीता सोचती हैं, तो उन्हें लगता है कि अपने शैशव में उन्होंने माता-पिता को संतान-संबंधी जितनी तृप्ति दी है, बड़े होते ही, उतनी ही चिंता और क्लेश दिया है।

पहला चरण वह था, जब माता अपने भीतर गुम हुई कुछ सोचती रही थीं, और पिता अपनी लाडली पुत्री के लिए आर्य राजमहलों में कोई योग्य वर दुंढवा रहे थे।...सीता को वे दृश्य नहीं भूलते, जब सम्राट् के गुप्तचर विभिन्न राजधानियों से लौटते थे। सम्राट् उत्सुकता और आशा-भरी आंखों से गुप्तचरों को, धावकों को, अनुचरों को देखते थे-किन्तु आगन्तुक गुप्तचर, धावक और चर मुंह लटकाकर चुपचाप खड़े रह जाते थे...प्रत्येक राजधानी में सीता के सौन्दर्य के साथ-साथ उसकी जन्मकथा की चर्चा थी। प्रत्येक स्थान पर उसके जन्म और कुलशील को लेकर प्रश्न थे, संदेह थे, लांछन थे...कोई नहीं मानता था कि वह सम्राट् सीरध्वज की पुत्री होने के कारण मिथिला-नरेशों के प्रसिद्ध कुल की राजकुमारी है...विभिन्न राजपरिवारों ने, सम्राट् सीरध्वज द्वारा सीता के दहेज में अपना संपूर्ण वैभव दे देने का तो अधिकार स्वीकार किया था, किन्तु उसे अपना कुल-गोत्र देने का अधिकार कोई नहीं मानता था। वे यह तो चाहते थे कि सम्राट् सीरध्वज के साथ उनका संबंध हो जाए, ताकि उनकी धन-संपत्ति, उनका राज-वैभव उन लोगों को मिल जाए, किंतु सीता को सम्राट् की पुत्री के रूप में स्वीकार करना वे नहीं चाहते थे...।

सीता का ध्यान राम की ओर चला गया।...वह क्या सोचती जा रही हैं? वह उस विषय में क्यों नहीं सोचतीं, जो प्रश्न बनकर इस समय उनके सम्मुख आया है। अतीत को उलटने-पलटने से ता होगा...।

राम के विषय में कितना कुछ सुना है सीता ने। लगता है इन दिनों मिथिला का पवन सायं-सायं नहीं करता, राम-राम कहता है...राम ने सिद्धाश्रम में राक्षसों से युद्ध कर, उनका नाश किया, राम ने विश्वामित्र ने यज्ञ की रक्षा की, राम ने आर्य सेनापति के पुत्र द्वारा पीड़ित निषादों की रक्षा की, राम ने आर्य सेनापति और उसके पुत्र को दंडित किया, राम ने राक्षस शिविर से अपहृता युवतियों का उद्धार किया, राम ने इन्द्र द्वारा पीड़ित अहल्या को निष्कलंक घोषित कर उनका आतिथ्य ग्रहण किया, राम ने अहल्या को गौतम के आश्रम में पहुंचा दिया, राम ने...।

क्या सीता भी वनजा और अहल्या के समान पीड़ित हैं? हैं! हैं!! उनका मन चीख-चीखकर कहता है। वह भी अहल्या के समान इस प्रतीक्षा में बैठी हैं कि राम आकर उनकी अज्ञातकुशीलता का कलंक धोए, पिता सीरध्वज की आन की रक्षा करें...।

सीता राम के वरण के लिए तैयार हैं?

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    अनुक्रम

  1. प्रथम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. बारह
  24. तेरह

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