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उपन्यास >> दीक्षा

दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14995
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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दीक्षा

जब कभी, सीता के विषय में सोचने के लिए सीर-ध्वज ने अपने मन को उन्मुक्त छोड़ा है, उनके सामने बार-बार एक छोटा-सा खेत उभरा है। उस खेत कीं मिट्टी पर एक नवजात बच्ची पड़ी, जोर-जोर से रो रही है। दो-एक दिनों की वह बच्ची, न तो किसी कपड़े में लिपटी हुई है, न उसके गले अथवा कलाइयों में कोई सूत्र है। किसकी है यह बच्ची? इसे कौन छोड़ गया है यहां?

कोई सूचना नहीं। जानने का कोई स्रोत भी नहीं। इस समय बच्ची धरती की गोद में पड़ी है, उसी की पुत्री है। और कोई नहीं है उसका।

रोजाज्ञा से बच्ची उठा ली जाती है। राजा को, खेत में हल जोतने की प्रथा पूरी करनी है। बच्ची को, खेत में पड़ी रहने नहीं दिया जा सकता।

किंतु, राजादेश से बच्ची के उठा लिए जाने मात्र से, कार्य पूरा नहीं हो सकता। बच्ची के पालन-पोषण की कोई-न-कोई व्यवस्था करनी होगी। किसका दायित्व है यह? माता-पिता का। किन्तु यदि माता-पिता संतान को इस प्रकार खुले खेत में छोड जाएं तो?...पर क्यों छोड़ गए माता-पिता? उन्हें अपनी संतान से प्यार नहीं? वह कौन-सी मजबूरी थी। कोई भी मजबूरी रही हो-ऐसी मजबूरी के लिए उत्तरदायी कौन है? देश का राजा। हां! देश का राजा। जिस देश के माता-पिता अपनी किसी मजबूरी के कारण अपने नवजात शिशु को खेत में छोड़ जाने को बाध्य हों उस देश का राजा अवश्य ही, प्रजापालन के अपने कर्त्तव्य से स्खलित हुआ है। उसे अपने दायित्व का बोध नहीं रहा...अच्छा किया इस बच्ची के माता-पिता ने, बच्ची को यहां छोड़ गए। राजा को अपने दायित्व का बोध तो हो। अब राजा अपना दायित्व पूरा करे...वह इस बच्ची का पालन-पोषण करे...

बच्ची, राजाश्रय में पलने के लिए राजप्रासाद में आ गई।

पर, सीरध्वज सम्राट् ही नहीं, एक व्यक्ति भी था। उस व्यक्ति के वक्ष में पिता का हृदय था। संतान के अभाव में पिता का हृदय भूखा था। सीता राजाश्रय में पलने वाली भूमि-पुत्री थी। राजा भूमि-पति होता है-भूमि-पुत्री का पिता सीरध्वज ही हो सकता था। सीरध्वज, बच्ची को देखता है। बच्ची उसे बार-बार आकर्षित करती। बार-बार सीरध्वज के मन की ममता उबल-उबलकर उसे बाध्य करती।...एक रोज सीरध्वज ने बच्ची को हृदय से लगा लिया, "मेरी बच्ची!''

सीता, सुनयना की गोद में डाल दी गई।

सीता सम्राट् सीरध्वज जनक की राजकुमारी थी। वह राजसी संस्कारों में पल रही थी। किन्तु, साथ ही वह व्यक्ति सीरध्वज की पुत्री भी थी। पिता-पुत्री एक-दूसरे को अच्छी तरह समझते थे। सीता युवावस्था की ओर बढ़ रही थी। सीरध्वज उसके योग्य वर के लिए, आर्य राजपरिवारों में दृष्टि दौड़ा रहे थे-किन्तु, सब जगह सीता के कुल को लेकर, उसके जन्म के सम्बन्ध में संदेह थे, आशंकाएं थीं लांछन थे। सीता असाधारण रूपवती थी, उसके रूप की सब ओर चर्चा थी। अनेक पुरुष उसे पाने के लिए इच्छुक थे; किन्तु न तो वे पिता सीरध्वज को स्वीकार्य थे, न सम्राट् जनक को। उनमें से किसी से संबंध जोड़ने पर सम्राट् का अहं आहत होता था, और कहीं पिता का मन पीड़ित होता था। किसी आकांक्षी की आयु अनुकूल नहीं थी, किसी की पहले से ही सौ-पचास रानियां थीं और वह उनमें एक संख्या की वृद्धि करना चाहता था। कहीं रूप नहीं, कहीं गुण नही...

सीरध्वज परेशान थे।

और अब आए हो तुम राम!

सीरध्वज क्या करें? शिव-धनुष के प्रतिबंध को बीच में लाकर दे अपनी पुत्री को राम जैसे योग्य वर से वंचित तो नहीं कर रहे? सीता की क्या इच्छा है? उन्हें सीता से भी बात कर लेनी चाहिए...

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    अनुक्रम

  1. प्रथम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. बारह
  24. तेरह

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