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उपन्यास >> दीक्षा

दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14995
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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दीक्षा

सात 

 

आश्रम में पहुंचते-पहुंचते, अंधकार पूरी तरह घिर आया था। आश्रम के आसपास के सारे मार्ग, पूरी तरह से जनशून्य हो गए थे; और मनुष्य का स्वर कम, वन्य पशुओं का स्वर ही अधिक सुनाई पड़ रहा श्ग। पर आज वन्य-पशुओं के उन स्वरों के साथ, राक्षसों के शिविर का उच्छृंखल कोलाहल कही नहीं था।

आश्रम में प्रवेश करते ही गुरु विश्वामित्र ने सुकंठ तथा गहन की पुत्रवधुओं के स्वास्थ्य के विषय में जिज्ञासा की। पता चला कि उन तीनों का स्वास्थ्य सुधर रहा है; और उनकी अवस्था अब चिंतनीय नहीं है। विश्वामित्र का मन कुछ आश्वस्त हुआ।

अपनी कुटिया में आकर गुरु अपने आसन पर बैठ गए। राम और लक्ष्मण को उन्होंने समीप ही अपने सम्मुख बैठने का संकेत किया।

वे कुछ क्षण आत्मलीन रहे और फिर सहसा बहिर्मुख होकर बोले, ''पुनर्वसु! वत्स, समस्त आश्रमवासियों को सूचना दो कि सबको कुटिया के सम्मुख वाले आंगन में तत्काल उपस्थित होना है। चिकित्सा कुटीर के रोगियों तथा उनकी सेवा-सुश्रुषा करने वाले जनों को छोड़, शेष सन् लोग उपस्थित हो। अत्यन्त आवश्यक कार्य है।''

पुनर्वसु आज्ञा का पालन करने चल पड़ा।

गुरु राम की ओर उन्मुख हुए, 'राम! मैं किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पा रहा हूं, कि राक्षस लोग, रात के समय आश्रम पर आक्रमण करेंगे या नही।''

राम की अपनी सहज मंद मुस्कान उनके मुख पर प्रकट हुई। बोले, "ऋषिश्रेष्ठ! प्रश्न यह नहीं है कि राक्षस कब आक्रमण करेगे-प्रश्न यह है कि वे किस घड़ी में मरना चाहते हैं। वे लोग उसी क्षण आक्रमण करेंगे।''

विश्वामित्र अत्यन्त आश्वस्त भाव से राम को निहारते रहे। राक्षसों के विषय में ऐसी बात कहने वाला अपने जीवन में गुरु को यह पहला ही पुरुष मिला था। अब तक उन्होंने राक्षसों के नाम पर पीले पड़ते हुए चेहरे, कांपते हुए हाथ और भागते हुए पांव ही देखे थे।

स्नेह से भीगी वाणी में गुरु बोले, "तुम्हारी शक्ति, वीरता, न्यायबुद्धि तथा दृढ़ निर्णय राक्षसों के काल हैं-इसका मुझे पूर्ण विश्वास है। पर पुत्र! मुझे और भी बहुत कुछ सोचना है। मुझे आश्रमवासियों को इस युद्ध के लिए तैयार करना है।''

'उनकी आवश्यकता नहीं पड़ेगी. गुरुदेव!'' राम मुस्कराए, "मैं और लक्ष्मण ही राक्षसों के लिए पर्याप्त हैं। क्यों लक्ष्मण?''

लक्ष्मण का मुख उल्लास से खिल उठा। राम ने उनके ही मन की बात कही थी। बोले, "पर्याप्त तो भैया राम अकेले ही हैं; पर हम दोनों मिलकर भी पर्याप्त हैं।''

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    अनुक्रम

  1. प्रथम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. बारह
  24. तेरह

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