उपन्यास >> दीक्षा दीक्षानरेन्द्र कोहली
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दीक्षा
राक्षसों की 'हो-हो' सहसा ऐसे थम गई, जैसे उनके हृदय की गति कही डूब गई हो। वे लोग अब तक बड़े कौतुक से भरे हुए, निश्चिंत होकर, किसी भी प्रकार के जोखिम की संभावनाओं की ओर से आंखें मूंदे, ताड़का खिलवाड़ देख रहे थे और कदाचित् राम-लक्ष्मण तथा विश्वामित्र की मृत्यु को निश्चित मान चुके थे; किंतु ताड़का को इस प्रकार धरती पर गिरते हुए देख, वे स्तब्ध रह गए थे। इतनी आकस्मिक अनपेक्षित घटना उनके जीवन में जैसे पहले कभी नहीं घटी थी। उन्होंने पीड़ामिश्रित भय तथा अत्यन्त आश्चर्य में भरकर राम की ओर देखा। ऐसा रूप, ऐसा शौर्य, ऐसी शस्त्र-दक्षता उन्होंने पहले कभी नहीं देखी थी। वे वहां रुक नहीं पाए। ताड़का के शरीर को वही पड़ा छोड़कर वे उल्टे पैरों घने वृक्षों के पीछे विलीन हो गए...।
लक्ष्मण का अट्टहास दूर तक उनका पीछा करता चला गया। तापस मंडली का भय राक्षसों के पलायन के साथ ही भाग गया था...। और राम ऐसे सहज भाव से खड़े थे, जैसे कुछ हुआ ही न हो।
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- प्रथम खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- द्वितीय खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- बारह
- तेरह