उपन्यास >> दीक्षा दीक्षानरेन्द्र कोहली
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दीक्षा
ग्यारह
प्रातः जागकर राम ने देखा सारा सिद्धाश्रम उनसे भी पहले जाग उठा। संभव है, आश्रम-निवासी रात-भर सोए ही न हों, या बहुत थोड़े समय के लिए सोए हों। किंतु किसी भी व्यक्ति के चेहरे के भाव देखकर निश्चित रूप से कहा जा सकता था कि वे लोग उल्लासपूर्वक उन्हें विदा देने के लिए, इतनी सुबह जागकर तैयार नहीं हुए थे। उनके चेहरों पर, विदाई के समय, राम, लक्ष्मण और गुरु विश्वामित्र के दर्शनो से वंचित रह जाने की आशंका का भाव अधिक मुखर था। कोई नहीं कह सकता था कि उस समय गुरु का आश्रम से जाना उन्हें अधिक खल रहा था, अथवा राम-लक्ष्मण का।
राम और लक्ष्मण गुरु को प्रणाम करने उनकी कुटिया में पहुंचे तो देखा, गुरु पहले से ही तैयार थे और आश्रम के मुख्य-मुख्य व्यक्ति पहले से ही गुरु को घेरकर बैठे हुए थे। सामान्य आश्रमवासी, तथा ग्रामवासी जो गुरु तथा राम-लक्ष्मण की विदाई तक के लिए आश्रम में ही रुक गए थे, एकएक कर कुटिया में आ रहे थे, और प्रणाम कर बाहर निकलते जा रहे थे।
गुरु की कुटिया से सिद्धाश्रम के प्रमुख द्वार तक के मार्ग के दोनों ओर भीड़ लगी हुई थी। जाते हुए राम-लक्ष्मण और गुरु को अधिक से अधिक समय तक देख पाने की एक होड़-सी लगी हुई थी।
वातावरण गंभीर तथा भावुक था। गुरु ने अनेक लोगों को आश्रम के अनेक दायित्व सौंप दिए थे। थोड़ी-थोडी देर में वे किसी को कोई अनुदेश दे देते थे। पुनः कोई बात याद आ जाने पर फिर कुछ कह देते।
अंततः गुरु उठे। उन्होंने भुजा उठाकर उपस्थित जनसमूह को आशीर्वाद दिया, आचार्य विश्ववंधु को भुजाओं में भरकर वक्ष से लगाया, मुनि आजानुबाहु के सिर पर हाथ रखा और बाहर की ओर चल पड़े। किंतु आजानुयबाहु को लेकर उनके साथ आज फिर की हुआ था, जो सदा से होता आया था-आजानुबाहु की आंखों में आज फिर उपालंभ था। गुरु की निष्क्रियता के प्रति नही, कदाचित् सक्रियता के प्रति। वे आंखें वार-बार शब्दशून्य उपालंभ दे रही थी-'आज जब पहली बार आपकी सक्रियता पर विश्वास हुआ तो आप हमें छोड़कर चल दिए कुलपति!'
पर गुरु रुक नहीं सकते थे।
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- प्रथम खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- द्वितीय खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
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