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उपन्यास >> दीक्षा

दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14995
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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दीक्षा

"यहां से तो चल पड़ना है पुत्र! किंतु अभी अयोध्या नहीं लौटना हुए।'' गुरु अपनी अन्तर्मुखी मुद्रा से मुक्त हो चुके थे। वे इस समय पूर्णतः जागरूक तथा किंचित चपल लग रहे थे।

"हम लोग कहां चलेंगे ऋषिवर?'' लक्ष्मण के स्वर में निहित उल्लास मुखर हो उठा।

राम मुस्कराए। वे जानते थे, उनकी उपस्थिति में, अपने संकोच के कारण, लक्ष्मण गुरु से सीधे बहुत कम बात करते थे। किंतु अयोध्या से विश्वामित्र के साथ आने के पश्चात् लक्ष्मण ने जो एक नया संसार देखा था, वह अद्भुत था। अब यहां से तुरंत अयोध्या लौटकर महलों में रहना लक्ष्मण को प्रिय नहीं था। अतः कही ओर चलने के प्रस्ताव से उनका उत्सुक तथा उल्लसित हो उठना, स्वाभाविक ही था।

लक्ष्मण की उत्कंठा पर गुरु भी तनिक मुस्कराए और फिर जैसे गंभीर हो गए, "पुत्र! मैं जिस उद्देश्य से तुमको तुम्हारे पिता से मांग कर लाया था, वह ताड़का, मारीच और सुबाहु का नाश मात्र नहीं था। वह उद्देश्य उससे कुछ बड़ा है। वह तो भविष्य में होने वाले एक बड़े संघर्ष की तैयारी है पुत्र! अतः चाहता हूं कि अयोध्या लौटने से पहले तुम्हें हर तरह से तैयार कर दूं -संघर्ष के सारे सूत्र जोड़ दूं।...मैं कल मिथिला के लिए चलूंगा राम! तुम लोग भी मेरे साथ चलो। वहां तपस्वी नृप सीरध्वज जनक का यज्ञ देखना, और भविष्य के लिए उन समस्त सूत्रों को भी ग्रहण करना...।''

राम और लक्ष्मण दोनों ने ही सहमति में सिर झुका दिए।

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    अनुक्रम

  1. प्रथम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. बारह
  24. तेरह

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