उपन्यास >> दीक्षा दीक्षानरेन्द्र कोहली
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दीक्षा
राम का मन गुरु विश्वामित्र के प्रति कृतज्ञता और श्रृद्धा से आप्लावित हो उठा। गुरु ने उन्हें कैसी दीक्षा दी है-रक्त-दीक्षा। और यही दीक्षा राम, जन-साधारण को देने जा रहे हैं।
राम की आंखों के सम्मुख एक नया संसार जाग रहा था।
राम स्वयं ही भीतर से कहीं बहुत बदल चुके थे।
वह संध्या, अब तक की समस्त संध्याओं से सर्वथा भिन्न थी। पहले कभी ऐसा अवसर नहीं आया, जब सिद्धाश्रम में इतने लोग एक साथ जमा हुए हों। अब तक आकर आश्रम में रहना तो दूर, उसके साथ किसी प्रकार का सम्पर्क रखना भी भय और जोखिम का कार्य था। बिश्वामित्र का आश्रम निर्द्वन्द्व रूप से अन्याय और अत्याचार के विरोध का प्रतीक था-फिर अन्याय चाहे राक्षसों द्वारा हो, आर्यों द्वारा हो, शबरों द्वारा हो, निषादों द्वारा हो...इसलिए सिद्धाश्रम से संबद्ध प्रत्येक व्यक्ति को राक्षस अपने शत्रु के रूप में देखते थे। बहुलाश्व के पुत्र देवप्रिय जैसे अनेक आर्य भी आश्रम से सम्बन्धित लोगों से प्रायः रुष्ट ही रहते थे। अतः जन-सामान्य का खुले रूप में आश्रम के साथ सम्बन्ध रखना कभी संभव नहीं हो पाया था। किंतु आज वहां जैसे एक मेला लगा हुआ था।...
...और वातावरण कितना बदल गया था। राक्षसों के भय का कुहरा मिट गया था। लोगों के चेहरे कैसे प्रकाशित हो रहे थे। जैसे आज तक का दमित उल्लास एक बार ही प्रकट हो आया था।
किंतु इस सारे उल्लास में कहीं विषाद की नमी प्रत्येक कण में विद्यमान थी। गुरु विश्वामित्र ने अपना यज्ञ पूरा कर लिया था और अब वे हिमालय में कौशिकी नदी के किनारे अपने पुराने आश्रम में लौट जाना चाहते थे। वे प्रातः ही चले जाने की तैयारी कर रहे थे। उन्हीं के साथ-साथ राम तथा लक्ष्मण भी चले जाएंगे...ठीक है कि अब राक्षसों का भय पूर्णतः समाप्त हो चुका था, बहुलाश्व और उसका अत्याचारी पुत्र भी मारे जा चुके थे। आश्रमवासी और ग्रामीण जनता अब साहस और आत्म-विश्वास से इतनी भरपूर थी कि कोई अत्याचारी आंख उठाकर इधर देख भी नहीं सकता था।...इन कारणों की आड़ में गुरु तथा राम-लक्ष्मण को न तो रोकने की आवश्यकता थी, और न रोका ही जा सकता था।...पर स्नेह कोई तर्क नहीं जानता, नहीं मानता। और स्नेह उन सबके मन में था।...प्रत्येक हंसते हुए मुखौटे के पीछे एक उदास चेहरा था। प्रत्येक मन में एक ही बात थी-कल प्रातः गुरु विश्वामित्र और राम-लक्ष्मण सदा के लिए सिद्धाश्रम से चले जाएंगे।...
राम और लक्ष्मण कुटिया में गुरु के सम्मुख बैठे थे। गुरु अत्यन्त गंभीर मुद्रा में ऐसे कठोर दिख रहे थे, जैसे अपने भीतर कोई युद्ध लड़ रहे ही किसी परीक्षा से गुजर रहे हों। उन्होंने राम और लक्ष्मण को सचेत दृष्टि से देखा और फिर जैसे अंतर्मुखी-से होकर बोलने लगे, "पुत्र! मोह अनावश्यक है. किंतु वह अत्यधिक बली होता है। इतने दिनों के पश्चात मैंने इन आश्रमवासियों को तथा ग्रामीणों को इस प्रकार प्रसन्न देखा है। इन्हें छोड़ने को मन नहीं मानता, किन्तु कार्य पूर्ण हो जाने की अवधि के पश्चात रुके रहना उचित नहीं है। यहां मेरा कार्य समाप्त हो गया है, अब यदि मैं अनावश्यक अटका रहा तो व्यर्थ अपना क्षय करूंगा और उन समस्त दायित्वों की उपेक्षा करूंगा, जो मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं। पुत्री! तुम दोनों के लिए भी यह सत्य है। तुम्हारा भी यहां का कार्य पूर्ण हो गया है।''
"हम प्रातः अयोध्या लौट जाएंगे गुरुदेव!'' राम ने सस्मित कहा।
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- प्रथम खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- द्वितीय खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- बारह
- तेरह