उपन्यास >> दीक्षा दीक्षानरेन्द्र कोहली
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दीक्षा
अनेक टोलियां शिविर में पहले प्रवेश करने का प्रस्ताव कर चुकी थीं। किंतु राम किसी एक दुकड़ी को भीतर भेजकर सूचना मंगवाने के पक्ष में नहीं थे। अन्त में आगे-आगे राम तथा लक्ष्मण ने शिविर में प्रवेश किया, उनके पीछे एक के बाद एक सारी टोलियां भीतर घुस गईं।
यद्यपि यहां राक्षस परिवारों का वास था, किंतु इस स्थान का रूप एक सामान्य बस्ती का-सा न होकर, एक सैनिक शिविर का-सा था। कदाचित् पूर्व-राक्षस राज्यों के समय के भवनों को तोड़कर, अथवा उनमें परिवर्तन इत्यादि कर, उन्हें वर्तमान रूप दिया गया था।
किंतु, इस समय सारी बस्ती में कहीं कोई प्राणी दिखाई नहीं पड़ रहा था। जीवित व्यक्ति का कहीं कोई स्वर नहीं था। चारों ओर पूर्ण स्तब्धता थी। कोई वीर राक्षस बाहर निकलकर युद्ध करने नहीं आया, किसी ने राक्षसराज रावण के इस शिविर के प्रति अपना दायित्व नहीं निभाया।
राम शिविर के मध्य में एक ऊंचे स्थान पर बैठ गए। उनकी दाईं ओर कुछ हटकर हाथ में धनुष पकड़े, लक्ष्मण किसी आकस्मिक आक्रमण से रक्षा के लिए सन्नद्ध खड़े हो गए।
राम ने उच्च स्वर में टोलियों को संबोधित किया, ''बंधुओ! युद्ध के लिए राक्षस नहीं आए हैं। संभव है कि वे लोग भयभीत हो भाग गए हों; किंतु यह भी संभव है कि वे लोग यही-कहीं छिपे बैठे हों और कपट-युद्ध के लिए अवसर देख रहे हों। इसलिए सावधानी से काम लें। दिशाएं और क्षेत्र बांट लें और अपने-अपने मुखियों के नेतृत्व में चारों ओर की टोह लें। राक्षसों का चिह्न मिलते ही मुझे सूचित करें।''
ग्रामीण वाहिनी और आश्रमवाहिनी के मुखिया लोग अपनी-अपनी टोलियों को लेकर सावधानी से विभिन्न दिशाओं में चले गए।
राम और लक्ष्मण सचेत हो, सूचनाओं की प्रतीक्षा करते रहे...। किंतु समय बीतता गया और राक्षसों की उपस्थिति की कहीं से भी कोई सूचना उन्हें नहीं मिली।
लक्ष्मण अधीर होने लगे। मन कहीं खीझ उठा। यह कैसा युद्ध है, कि बैठे प्रतीक्षा करते रहो।
ऐसी परिस्थितियों में, जबकि शत्रुओं का पता हो, उनके घर में घुसे बैठे हों, एक स्थान पर स्थिर खड़े रहना, जैसे लक्ष्मण न हों, कोई पेड़ हो, कठिन काम था। उनके पग चंचल होते जा रहे थे। मुख पर अधीरता और उग्रता के भाव बढ़ते जा रहे थे। मन होता था, अभी धनुष हाथ में ले, सारे राक्षस-शिविर का एक चक्कर लगा आएं...पर राम अपने स्थान पर धैर्यपूर्वक शांत बैठे थे। सचेत और सतर्क वे भी थे, किंतु अशांत नहीं थे।
''कोई समाचार नहीं आया भैया।'' लक्ष्मण धीरे से बोले।
''आ जाएगा।'' राम मुस्करा रहे थे।
संध्या ढल रही थी। अन्धकार अपने आने की पूर्व सूचना दे रहा था।
विभिन्न टोलियों के मुखिया शोध के पश्चात् अपनी टोलियों के साथ लौटते रहे और राम के सम्मुख नये-नये तथ्य उद्घाटित होते रहे। उनके शोध का परिणाम राम के सामने था-अनेक अपहृता युवतियां, स्वर्ण के ढेर, अमूल्य मणि-माणिक्य, मदिरा के बड़े-बड़े अनेक भांड, स्नायु-उत्तेजक विभिन्न औषधियां, विभिन्न प्रकार के विष, मानव-मुंड तथा अस्थियां, अनेक लौह-खड्ग, बर्छे-भाले...हिंसा और विलास के साथ, अत्याचार के उपकरण...
राम की पीड़ा गहराती गई। एक विषाद-सा उनके मन पर छाता चला गया। इतना अत्याचार! इतना कि जिसे शब्द न दिए जा सकें। और इन जनपदों की प्रजा सब कुछ सहती चली गई। उनके भीतर विरोध नहीं जागा, आक्रोश नहीं जागा, आत्मविश्वास नहीं जागा...। उनकी सहायता को कोई नहीं आया। उनके ग्रामों के मुखिया थे। आस-पास अनेक आश्रम थे, ऋषि-मुनि थे। सेना-नायक और शासन-प्रतिनिधि थे। सम्राट थे। इन दुखियों की सहायता को कोई भी नहीं आया...। और अब इस सारे अत्याचार के पश्चात् वे राक्षस जीवित निकल गए थे। वे कहीं और जाकर ऐसा ही शिविर बनाएंगे। फिर ऐसे ही अत्याचार करेंगे...
राम को ही कुछ करना होगा।
वे ही करेंगे।
इन राक्षसों का नाश। अत्याचारी से दुर्बलों की रक्षा। जन-सामान्य में न्याय, समता, वीरता और आत्मनिर्भरता के भावों की उत्पत्ति। उन्हें शिक्षित करना होगा। उन्हें जगाना होगा। राम ही करेंगे...।
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- प्रथम खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- द्वितीय खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- बारह
- तेरह