उपन्यास >> दीक्षा दीक्षानरेन्द्र कोहली
|
0 |
दीक्षा
बीच में विश्वामित्र थे, उनके दाएं-बाएं राम-लक्ष्मण थे और पीछे-पीछे गुरु के साथ जाने वाले तपस्वी, आश्रम के मुख्यगण तथा कुछ ग्रामों के मुखिया थे। मार्ग के दोनों ओर जमा लोग, अवरुद्ध कंठों से गुरु तथा राम-लक्ष्मण की जय बोल रहे थे। उनकी आंखों से अश्रु तथा हथेलियों से पुष्प झर रहे थे। पुष्प-वर्षा करते हुए, हाथ रोककर वे अपने अश्रु पोंछ लेते थे और पुनः पुष्प बिखेरने लगते थे। बीच-बीच में कोई व्यक्ति आकर कभी गुरु के और कभी राम के चरणों से चिपट जाता, उन लोगों की गति थम जाती। उस व्यक्ति को उठाकर स्नेहपूर्वक समझाया जाता, और वे लोग फिर आगे बढ़ने लगते।
सिद्धाश्रम के मुख्य द्वार पर पहुंचकर गुरु तथा राम-लक्ष्मण ने सबसे विदा ली और वन में प्रदेश करने के लिए मुड़े। तभी कोई असाधारण तेजी से आकर राम के सम्मुख झुका और उसने अपना माथा राम के चरणों पर रख दिया। सब लोग रुक गए। विदाई के समय अनेक लोगों ने प्रणाम किया था, किंतु यह प्रणाम असाधारण था। "उठो देवि।'' राम ने अत्यन्त कोमल वाणी में स्नेहपूर्वक आदेश दिया।
युवती के मुख ऊपर उठाते ही राम ने पहचाना, यह वनजा थी। उसका सारा मुख अश्रुओं से भीगा हुआ था और वह सिसकियां ले-लेकर रो रही थी। उसके पीछे-पीछे अनेक अन्य युवतियां भी भीड़ से निकलकर उसके पीछे कुछ दूरी पर आकर खड़ी हो गई थीं। उनमें से अनेक को राम पहचानते थे, कुछ को नहीं भी पहचानते थे। कदाचित् वे सब वे अपहृता युवतियां थी, जिन्हें कल संध्या समय राक्षस-शिविर से मुक्त कराया गया था।...
राम का मन करुणा-विहृल हो उठा। गुरु विश्वामित्र की उपस्थिति में भी वनजा ने अपना माथा उनके चरणों पर रखा था। क्यों?
"व्याकुल क्यों हो वनजा?'' राम का स्वर और भी कोमल हो उठा था।
वनजा ने हथेली की पीठ से अपने अश्रु झटककर आखें स्वच्छ की, मुख ऊपर उठाकर राम को देखा, और रोते हुए अवरुद्ध तथा अनियंत्रित स्वर में बोली, ''आर्य! मेरे पति को मारकर राक्षस खा चुके हैं। मैं अपहृत की गई अबला हूं, जो समाज की दृष्टि में पतित हो चुकी हूं। इस समय मैं किसी राक्षस का गर्भ वहन कर रही हूं। ऐसी अवस्था में आप मुझे किस के भरोसे छोड़कर जा रहे हैं प्रभु? यदि इस प्रकार निर्मम संसार में प्रताड़ना सहने और अपमानित होने के लिए निराश्रित ही छोड़ना था तो हमें आपने मुक्त ही क्यों कराया!''
राम की दृष्टि वनजा से हटकर अन्य युवतियों के चेहरों पर भी घूम गई। वे सब भी प्रायः वही कहना चाह रही थीं, जो वनजा ने कहा था। राम के मुख पर करुणा और स्नेहमिश्रित मुस्कान फैल गई।
''देवियो! व्यथा त्यागो। अपने भविष्य के निर्माण में अतीत को भूलने का प्रयत्न करो। तुम लोग यद्यपि अपने घरों को नहीं लौट सकतीं, तो भी स्वयं को निराश्रित मत समझो। यह आश्रम और यह जनपद तुम्हारा घर है। मैं तुम्हें निराश्रित नहीं छोड़ रहा। मैं तुम्हें राम के संरक्षण में छोड़ रहा हूं। वह तुममें से एक है-गगन। वही तुम्हारा अभिभावक है। उसके संपर्क से यहां अनेक और रामों का निर्माण होगा। अपना आत्मविश्वास मत छोड़ो। और मुझे दूर मत समझो। तुम्हें जब भी मेरी आवश्यकता होगी-मैं आऊंगा। बार-बार आऊंगा। दाशरथि राम शपथपूर्वक तुम्हें वचन देता है कि वह तुम्हारे बुलाने पर अवश्य आएगा। पर तुम्हें मेरी आवश्यकता नहीं पड़ेगी, क्योंकि स्वयं तुम में राम बनने की सामर्थ्य है...। उठो देवि। स्वयं को हीन, तुच्छ और निराश्रित मत जानो।''
|
- प्रथम खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- द्वितीय खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- बारह
- तेरह