उपन्यास >> दीक्षा दीक्षानरेन्द्र कोहली
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दीक्षा
''आर्य कुलपति द्वन्द्व में न पड़ें।'' अहल्या ने सुहास की मुस्कान के साथ कहा, "'निर्णय उनकी धर्मपत्नी का ही रहेगा।''
गौतम अपने शरीर को तैयार करते रहे, किंतु मन तैयार नहीं हो रहा था। अहल्या अपने निर्णय की कितनी पक्की है, यह वे देख रहे। थे। शत को अहल्या ने पहले से ही तैयार कर दिया था।
''जाना ही होगा अहल्या?''
"हां स्वामि।''
"हम कहां जा रहे हैं मां?'' शत ने पूछा,
''पिताजी तुम्हें नीरा मौसी से मिलाने के लिए ले जा रहे हैं बेटा!''
''तुम नहीं चल रहीं मां?''
''पुत्र, वहां जाकर मुझे बुलवाने का प्रबन्ध करना।'' अहल्या का स्वर निमिष-भर के लिए कांपकर स्थिर हो गया, ''व्यवस्था होते ही मैं आ जाऊंगी।''
गौतम के मन में कही जल्दी मच गई। उनका मन और नहीं देख पाएगा, और नहीं सह पाएगा। यदि वे और जरा-सी भी देर यहां रुके, तो फिर वे नहीं जा सकेंगे। उन्हें चल ही देना चाहिए।
''पुत्र शत मां के चरण छुओ।''
शत मां के, चरणों में झुक गया।
गौतम देख रहे थे, अहल्या ने तनिक-सी दुर्बलता नहीं दिखाई। उसने अत्यन्त संयत भाव से शत के सिर पर हथेली रख आशीर्वाद दिया, ''यशस्वी ऋषि का पद पाओ वत्स।''
किस धातु की बनी है अहल्या?
अहल्या ने आगे बढ़कर, गौतम के चरण छुए, ''अच्छा स्वामि विदा दो। इन्द्र को दंडित करो।''
गौतम स्वयं को रोक नहीं पाए। उनका मोह छलछला आया। हाथ बढ़ाकर अहल्या को लिपटा लिया।
अहल्या तब तक खड़ी देखती रही, जब तक गौतम और शत पगडंडी के मोड़ पर उसकी दृष्टि से ओझल नहीं हो गए। फिर उसने अत्यन्त सहज गति से लौटते हुए, कुटिया के बाड़े का फाटक बंद किया। कुटिया के भीतर आकर, द्वार की श्रृंखला चढ़ा ली। स्थिर दृष्टि से एक बार कुटिया की छत को देखा, और अगले ही क्षण टूटकर गिरे हुए पेड़ के समान शैया पर औंधी जा गिरी। उसकी आंखों से आंसू मूसलाधार वर्षा के समान बह रहे थे, और कंठ में हिचकियों का मेला लग आया था।
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- प्रथम खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- द्वितीय खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- बारह
- तेरह