उपन्यास >> दीक्षा दीक्षानरेन्द्र कोहली
|
0 |
दीक्षा
राम ने लम्बे-लम्बे दो-तीन डग भरे और गुरु के साथ-साथ चलने लगे। लक्ष्मण को साथ चलने के लिए कुछ अधिक प्रयत्न करना पड़ा। वह अभी भाई राम के समान न तो लम्बे-तड़ंगे ही थे, न उतने बलिष्ठ ही। ब्रह्मचारी लोग अपना संक्षिप्त-सा सामान उठाए, एक निश्चित दूरी बनाए, सधी हुई चाल से गुरु के पीछे-पीछे आ रहे थे।
कुछ समय तक सारी टोली सर्वथा मौन आगे बढ़ती चली गई, जैसे वे लोग जल्दी से जल्दी एक निश्चित दूरी पार कर अयोध्या से दूर हो जाना चाहते हों। कोई नहीं जानता था कि रात को ठहरने के विषय में गुरु ने क्या सोचा है। इस ढलती हुई संध्या में अंधकार घिर आने से पूर्व तक के समय में कितनी यात्रा हो जानी चाहिए?...और गुरु थे कि निरंतर बढते जा रहे थे।
सूर्य तथा अयोध्या नगरी समान गति से पीछे छूटते जा रहे थे और अब सरयू का जल दिखाई पड़ने लगा था। सरयू के दृष्टि में आते ही विश्वामित्र के पग कुछ शिथिल होने लगे। और एक सुविधापूर्ण घाट के दिखाई पड़ते ही गुरु रुक गए, ''वत्स पुनर्वसु! आज रात यहीं विश्राम करना है। तदनुकूल व्यवस्था करो।''
रथ से उतरने के पश्चात् पहली बार गुरु राम से संबोधित हुए, ''वत्स राम! संन्यासी-तपस्वी लोग रथों में यात्राएं नहीं करते। हमारी इस यात्रा में सब स्थानों पर रथ-यात्रा की सुविधा भी नहीं है, और पुत्र! तुम्हें रथ से उतारकर वनों में पदाति चलाने के पीछे मेरा एक निश्चित उद्देश्य भी है।''
पुनर्वसु ने गुरु तथा राम-लक्ष्मण के बैठने के लिए आसन बिछा दिए थे।
''बैठो पुत्र!'' गुरु ने कहा, और लक्ष्मण की ओर कुछ अतिरिक्त स्नेहिल दृष्टि से देखकर बोले, ''पुत्र लक्ष्मण! तुम थक तो नहीं गए? तुम्हारे लिए कदाचित् यह यात्रा अधिक कठिन हो।''
लक्ष्मण पूरी तरह स्फूर्तिपूर्ण दीख रहे थे। चंचल मुद्रा में सहास बोले, ''मेरी मां कहती हैं, सौमित्र को थकने का कोई अधिकार नहीं है। सुमित्रा के पुत्रों ने पाप-रूपी अंधकार को जला डालने के लिए अग्नि रूप में जन्म लिया है। उन्हें थकना नहीं चाहिए।''
गुरु ने कुछ विस्मय से लक्ष्मण को देखा, ''ऐसा कहती हैं, देवि सुमित्रा!''
''हां ऋषि श्रेष्ठ!'' राम बोले, ''माता सुमित्रा स्वयं भी पवित्र अग्नि से कम नहीं हैं-तेजस्विनी, उग्र तथा निष्पाप।''
ऋषि के मन का उल्लास उनके चेहरे पर फूट पड़ा, ''फिर तो मैं ठीक जगह पहुंचा वत्स! मेरे जैसा और कौन भाग्यशाली होगा, जो राम की कामना लेकर गया और राम तथा लक्ष्मण को लेकर लौटा।'' गुरु अपने मन के किसी भाव में रम गए और कुछ क्षणों तक शांत रहे, फिर बोले, ''वत्स राम और लक्ष्मण! मैंने जान-बूझकर तुम्हें यह सारा मार्ग पैदल चलाया है। मैं चाहता हूं कि तुम लोग सहज नागरिक होकर, साधारण मनुष्य की पीड़ा को देखकर उसका अनुभव करो। पुत्र! जिसने स्वयं कभी पीड़ा नहीं सही, वह दूसरे की व्यथा को कभी नहीं देख पाता। सुख एक बहुत बड़ा अभिशाप है राम! जो व्यक्ति को दूसरों की व्यथा की ओर से अंधा कर देता है। इसीलिए ये राजा, सम्राट्, सेनापति, सामंत लोग अपने विलास की चर्बी अपनी आंखों पर चढ़ाए आश्वस्त बैठे हैं। राम! मैं तुम्हें अयोध्या के उस विलासी वातावरण से इसीलिए बाहर निकाल लाया हूं। राजकुमारों के जीवन से हटकर, साधारण व्यक्ति के अस्तित्व के मानापमान के, न्यायान्याय के संघर्ष को भी देखो।''
|
- प्रथम खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- द्वितीय खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- बारह
- तेरह