उपन्यास >> दीक्षा दीक्षानरेन्द्र कोहली
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दीक्षा
गौतम की सारी चेतना जड़ हो गई थी। वे जैसे कुछ भी अनुभव करने में असमर्थ हो चुके थे-सुख-दुख, हंसी-क्रंदन, झूठ-सच, करुणा-घृणा...कुछ नहीं। वे तो अनुभूति-शून्य एक निर्जीव यंत्र मात्र थे...। उन्होंने अपनी उसी यांत्रिक स्थिति में आगे बढ़कर, रोते हुए शत को गोद में उठा लिया। शत का शरीर ज्वर में तप रहा था। निरन्तर रोने तथा ताप के कारण उसका कंठ और होंठ-बुरी तरह सूख गए थे।
शत ने पिता को अपनी पूरी शक्ति से भींच लिया, वह उनके शरीर से भीत पक्षी-शावक के समान चिपक गया था। उसका भय अंततः उसकी वाणी में फूटा, "हमें अकेले छोड़कर मत जाना पिताजी।''
''नहीं। पुत्र नहीं।'' गौतम ने शत को थपथपाया, ''मैं अब कहीं नहीं जाऊंगा।''
गौतम सहज होने का प्रयत्न कर रहे थे।
इस समय क्या धर्म था उनका?
इन्द्र जाते-जाते कह गया था, 'पहले तो स्वयं बुला लिया, और अब नाटक कर रही है...' पर यह कहते हुए कितनी प्रवंचना थी उसके चेहरे पर। वह अपने अपराध को छिपाने के लिए, जाते-जाते अहल्या पर एक लांछन लगा गया था। क्यों? इसलिए कि अहल्या को दोषी मानकर, उसका अपराध हल्का मान लिया जाए। यदि एक स्त्री, पर-पुरुष को काम आह्वान देती है, और पुरुष उसे स्वीकार कर उसके पास आता है, तो समाज उसके लिए स्त्री को ही दोषी ठहराएगा...इन्द्र ने ऐसी ही चाल चली है। अहल्या को लांछित कर वह अपने आतिथेय ऋषि की पत्नी के साथ बलात्कार जैसे गंभीर अपराध तथा पाप को छिपा जाना चाहता है...।
'किंतु' गौतम के मन में संदेह ने सिर उठाया, 'वे यह मानकर क्यों चल रहे हैं कि इन्द्र ने मिथ्या-कथन किया है। पूर्वाग्रहयुक्त बुद्धि तो सत्य का अन्वेषण नहीं कर सकती....' पर गौतम का मन जानता था कि संदेह का यह तर्क खोखला है। अहल्या को-वे अच्छी तरह जानते हैं। आठ-नौ वर्षों के इस वैवाहिक जीवन में क्या वे अहल्या को इतना भी नहीं पहचान पाए? अहल्या में काम संबंधी दुर्बलता नहीं है, न ही उसे किसी का धन-ऐश्वर्य अथवा पद सम्मोहित कर सकता है...। फिर उन्होंने यह भी देखा था कि आश्रम में आते ही पहली ही संध्या में इन्द्र ने अहल्या पर कैसी लालुप दृष्टि डाली थी, और उसके सम्मुख अपने ऐश्वर्य का जाल बिछाया था। यदि अहल्या में इन चीजों के लिए तनिक भी दुर्बलता अथवा आकर्षण होता, तो उसका व्यवहार कुछ भिन्न होता। वह शालीनतावश भी इन्द्र का दुष्ट व्यवहार हंसकर स्वीकार कर सकती थी, किंतु वह कितनी घृणा और जुगुप्सा से भर उठी थी। अपनी इस घृणा को उसने इन्द्र से छिपाया भी नहीं था...और दूसरे दिन यज्ञशाला में पवित्र अग्नि के समुख बैठकर भी इन्द्र का तनिक भी ध्यान, ब्रह्म-चिंतन की ओर नहीं था। वह तो सार्वजनिक रूप से निर्लज्जतापूर्वक अहल्या को अपनी आंखों से निगल रहा था...। इस सारे ज्ञान-समारोह में इन्द्र ने कोई भाग नहीं लिया था, वह अपने कुटीर में बैठा, मदिरा पीता रहा था...। इन परिस्थितियों में गौतम की बुद्धि कैसे यह स्वीकार कर ले कि इन्द्र सच्चा है, और अहल्या झूठी है। नहीं...इन्द्र झूठा है, प्रवंचक है, अन्यायी है, अत्याचारी है...।
शत को गोद में लिए हुए गौतम धीमे पगों से बढकर, अहल्या के समीप आए। उन्होंने अहल्या के सिर पर हाथ रखा, उसके केशों को सहलाया, ''अहल्या।''
अहल्या ने अपनी हथेलियों को मुख पर से हटाया, गौतम की ओर देखा। गौतम के चेहरे पर प्रेम; करुणा और संवेदना थी। अहल्या खड़ी हो गई। उसने क्षण-भर गौतम की आंखों में देखा और टूटकर गिरे हुए पेड़ के समान, उनकी छाती से जा लगी, "इसमें मेरा तनिक भी दोष नहीं है, स्वामि!''
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- प्रथम खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- द्वितीय खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- बारह
- तेरह