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उपन्यास >> दीक्षा

दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14995
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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दीक्षा

मध्य में यज्ञवेदी पर गुरु विश्वामित्र आसीन थे। उनके दक्षिण और उत्तर भाग में, कुछ हटकर आचार्य विश्वबंधु तथा मुनि आजानुबाहु बैठे थे। उनके पीछे समस्त आश्रमवासी थे। आश्रमवासी इस समय भी सैनिक मुद्रा में थे। जिसके पास जो भी शस्त्र था, वह उसके सम्मुख रखा हुआ था। धनुष-बाण, खड्ग, परशु, गंडासा, चाकू छुरी, लाठी-पर सबके पास आक्रमण के लिए कोई न कोई शस्त्र अवश्य था।

आश्रम के मुख्य द्वार की ओर मुख किए राम बैठे थे, उनके हाथ में उनका धनुष था। उनके साथ ग्रामीण योद्धाओं की एक टोली थी, वे सब के सब सशस्त्र थे। उनके शस्त्र आश्रमवासियों से अधिक सार्थक और उपयोगी थे। इस टोली के लोग आश्रमवासियों के समान युद्ध से सर्वथा असंबद्ध नहीं थे। उन्होंने परस्पर झगड़ों से लेकर, आखेट तक के किसी न किसी युद्ध में भाग अवश्य लिया था।

सिद्धाश्रम के मुख्य द्वार की ओर पीठ किए हुए राम के विपरीत दिशा में लक्ष्मण, अपने धनुष को लिए सचेत बैठे थे। उनके साथ भी ग्रामीण युवकों की वैसी ही एक टोली थी, जैसी राम के साथ थी। लक्ष्मण का मुख राम के समान सहज नहीं था। वे कुछ उत्तेजित थे। वे अपने आवेश को अभिव्यक्त होने से रोक नहीं पा रहे थे...। राम ने ताड़का का वध कर दिया था, किंतु लक्ष्मण को अभी तक एक बाण चलाने का अवसर भी नहीं मिला था। लक्ष्मण को राक्षसों पर क्रोध आ रहा था। वे लोग शीघ्र आते क्यों नहीं? लक्ष्मण अपनी वीरता का प्रदर्शन कैसे करें? गुरु का यज्ञ सिद्धाश्रम में चल रहा था और उसकी रक्षा आवश्यक थी, फिर राम की अनुमति भी नहीं थी, नहीं तो लक्ष्मण यहां इस प्रकार प्रतीक्षा करने से उत्तम सीधे राक्षस शिविर पर धावा करना उचित समझते। कौन यहां बैठा उनकी प्रतीक्षा करे। जाने वे लोग आएं या न आएं...।

यज्ञ आरंभ हुआ। वेदी में अग्नि प्रच्चलित हुई। धुआ आकाश की ओर उठा। मंत्रोच्चर का शब्द वायुमंडल में प्रसारित होने लगा; और वहां उपस्थित प्रत्येक जन अपने स्थान पर सतर्क और सावधान हो गया। पहले, यज्ञ आरंभ होते ही राक्षस आ जाया करते थे। यज्ञ आरंभ करना, वस्तुतः राक्षसों की शक्ति को चुनौती देना था और यज्ञ का निर्विघ्न सम्पन्न होना उनकी शक्ति की अस्वीकृति की घोषणा।

किंतु आज राक्षसों का कहीं भी कोई चिन्ह नहीं था। वे दिखाई तो नहीं पड़ते थे, उनका कोलाहल अथवा उनके समीप ही कहीं होने का किसी भी प्रकार का कोई प्रमाण नहीं था।

आश्रम की सीमा, और उससे भी कहीं आगे, राक्षसों की बस्ती के अत्यन्त निकट नियुक्त टोलियों से राम और लक्ष्मण का निरंतर संपर्क बना हुआ था। संदेशवाहक आ और जा रहे थे। बार-बार यही संदेश आ रहा था कि राक्षसों की कहीं कोई गतिविधि दिखाई नहीं पड़ रही। शनैः-शनैः गुरु विश्वामित्र के मंत्रोच्चार का स्वर स्थिर होता गया। उसके साथ-साथ उनका ध्यान अपने परिवेश से हटकर कहीं अपने भीतर डूबता जा रहा था। राक्षस उनके ध्यान में से निकल गए थे और उनका चित एकाग्र होकर, एक केंद्र पर स्थापित होता जा रहा था...आस-पास बैठे हुए आश्रमवासियों के राक्षसों के भय से अवरुद्ध कंठ भी क्रमशः कंपनहीन और सहज होते जा रहे थे। मंत्रोच्चार का स्वर तीव्र से तीव्रतर होता जा रहा था, वायुमंडल में उनकी बढ़ती हुई गूंज मानो राक्षसी भावों को वहां से खदेड़ कर दूर करती जा रही थी। वातावरण शुद्ध होता जा रहा था...

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    अनुक्रम

  1. प्रथम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. बारह
  24. तेरह

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