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उपन्यास >> दीक्षा

दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14995
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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दीक्षा

तभी एक संदेशवाहक ने आकर अत्यन्त धीमे और नम्र स्वर में राम को सूचना दी, ''आर्य! राक्षस लोग अपने शिविर से निकलकर इस ओर आते हुए देखे गए हैं।''

'सावधान।'' राम और लक्ष्मण को संकेत किया।

राम और लक्ष्मण की टोलियां उठ खड़ी हुईं। धनुष-बाण और खड्ग सध गए। उनकी मुद्रा आक्रामक हो गई।

यज्ञ निर्विघ्न चलता रहा।

आश्रम के मुख्य द्वार की ओर से दो अत्यन्त दीर्घकाय तथा भयंकर राक्षस प्रकट हुए। उनका वर्ण निपट काला, नाक चपटी तथा चौड़ी और सिर पर व्यवस्थाहीन, बडे हुए लम्बे अस्त-व्यस्त बाल थे। लंबी-लंबी कलमें, कानों तक चढ़ी हुई मूंछें तथा मदिरा से आरक्त क्रूर आंखें थीं। उनकी कटि पर भड़कीले, मूल्यवान और भद्दे वस्त्र, तथा शरीर पर मणि-माणिक्य जड़े अत्यन्त मूल्यवान स्वर्ण आभूषण सर्वथा सौंदर्य-शून्य ढंग से लदे हुए थे। दोनों ने एक-एक हाथ में भयंकर खड्ग तथा दूसरे हाथ में बड़ा-सा मांस खंड पकड़ रखा था। मांस के मध्य की अस्थि को हाथ में पकड़े हुए, वे दोनों अपने बड़े-बडे दांतों से नोचते हुए बड़ी प्रचंडता से बेदी की ओर बढ़े चले आ रहे थे। मांस-खंड में से अभी रक्त टपक रहा था। वह कच्चा-ताजा मांस पशु अथवा मनुष्य, किसी का भी हो सकता था...।

"मारीच और सुबाहु।'' राम की टोली में से किसी ने कहा। तभी राक्षसों की दृष्टि टोली का नेतृत्व करते राम पर पड़ी। उनकी लाल-लाल आंखें, भयंकर क्रोध के मारे जैसे कोटरों से निकल पड़ने को तैयार हो गईं।

विकट हुंकार कर मारीच ने अपने हाथ का मांस-खंड यज्ञ की वेदी की ओर उछाल दिया और स्वयं खड्ग तानकर आकाश की ओर उछला।

राम के लिए परीक्षा का समय था। वे राक्षसों के मायावी युद्ध के अभ्यस्त नहीं थे। मांस-खंड वायु से उड़ता सा यज्ञ वेदी की ओर आ रहा था। उसे न रोका जाता तो यज्ञ भ्रष्ट हो जाता और पृथ्वी को छोड़ ऊपर उछले हुए मारीच को न रोका जाता तो वह अपने खड्ग से राम पर प्रहार कर बैठता।

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    अनुक्रम

  1. प्रथम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. बारह
  24. तेरह

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