उपन्यास >> दीक्षा दीक्षानरेन्द्र कोहली
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दीक्षा
विश्वामित्र की प्रश्नभरी आंखें उनकी ओर उठीं।
''आर्य कुलपति! उन स्त्रियों में से वृद्धा और बालिका का देहान्त हो गया है।''
विश्वामित्र कुछ नहीं बोले। उनकी आंखों में जल के दो कण चमक आए।
मुनि आजानुबाहु और गहन के दोनों पुत्र जा चुके थे।
विश्वामित्र अकेले, अपनी कुटिया में इधर से उधर टहल रहे थे। वह बार-बार किसी निर्णय पर पहुंचते और उसे त्याग देते। वह निर्द्वन्द्व रूप से एक निर्णय पर पहुंच नहीं पा रहे थे। क्या करें? प्रश्न! प्रश्न!! चिंता ही चिंता! वह सोचते जा रहे थे।
बात सोचने की ही नहीं, चिंता की भी थी। सतयुग के साथ ही देवताओं का बल एकदम क्षीण हो चुका था। देव-शक्ति के क्षीण होते ही राक्षसों ने सिर उठाना आरम्भ किया। वे शस्त्र-बल से सम्पन्न हैं और उनके पास जन-शक्ति है।...और अब तो उनको रावण जैसा नेता भी मिल गया है। जम्बू-द्वीप ही नहीं, क्षीण-शक्ति देवलोक तक धावा मार आया है। विश्वामित्र की आंखें एक अनजाने भय से विस्फारित हो उठीं, ''कितना असुरक्षित है आर्यावर्त-आर्यावर्त ही क्यों, सारा जंबू-द्वीप!''
तो फिर विश्वामित्र को ही कर्मरत होना पड़ेगा।
विश्वामित्र की आंखें चमक उठीं। आकृति पर एक दृढ़ता आ विराजी। सारे शरीर की मांसपेशियां जैसे कुछ कर गुजरने को उद्यत हो गईं। मन और शरीर की शिथिलता बहुत दिनों के पश्चात् मिटी थी।...यह विश्वामित्र का संकल्प था। विश्वामित्र अपने संकल्प के बल पर जन्मतः क्षत्रिय होते हुए भी, यदि हठी वसिष्ठ से ब्रह्मर्षि की प्रतिष्ठा पा सकते हैं, तो आर्यावर्त के राजाओं को शत्रु राक्षसों के विरुद्ध खड़ा कर देना, क्या बड़ी बात है?...
कुटिया में उनकी गंभीर आवाज गूंजी, ''द्वार पर तुम हो पुत्र पुनर्वसु!''
''आज्ञा गुरुदेव!'' पुनर्वसु भीतर आ गया।
''वत्स! कल प्रातः मैं अयोध्या को यात्रा करूंगा। उचित व्यवस्था कर दी जाए। मेरी अनुपस्थिति में आश्रम की व्यवस्था आचार्य विश्वबंधु देखेंगे।''
''जो आज्ञा गुरुदेव!''
पुनर्वसु कुटिया से बाहर निकल गया।
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- प्रथम खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- द्वितीय खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
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