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उपन्यास >> दीक्षा

दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14995
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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दीक्षा

राम और लक्ष्मण अब तक चुपचाप अहल्या को देख रहे थे-एक अलौकिक कलाकृति-सी निर्मिति, महिमामयी नारी। तपस्या से तपी हुई आकृति, यातना और साधना से प्राप्त की गई पवित्रता। हिम-सा श्वेत, किंचित् लाली लिए हुए गोरा रंग, अथाह वेदना से भरी हुई पारदर्शी आंखें, ऊंची नाक...ऐसा अलौकिक भाव उन्होंने इससे पहले किसी मुख पर नहीं देखा था...किंतु अब वहां वह युवती नहीं थी, जिस पर इन्द्र की दूषित दृष्टि पड़ी थी। पच्चीस असाधारण वर्षों की काल-यात्रा, उस आकृति पर अपनी अमिट छाप छोड़ गई थी...

राम आगे बढ़े। उन्होंने झुककर अहल्या के चरण छुए।

लक्ष्मण ने उनका अनुसरण किया।

''देवि! मैं, कौसल्या और दशरथ का पुत्र राम आपको प्रणाम करता हूं। मेरे साथ मेरे छोटे भाई सौमित्र लक्ष्मण हैं।''

अहल्या के मन में ज्वार उठा। राम और लक्ष्मण साधारण मनुष्य नहीं हैं। आज तक किसी आर्य सम्राट् या राजकुमार को इतना साहस नहीं हुआ कि वह इस पतित नारी के द्वार पर आ सकता। स्वयं सीरध्वज यहां तक आने के लिए सहमत नहीं हुए। अद्भुत हैं राम और लक्ष्मण! और ऋषि विश्वामित्र कहते हैं कि ये दोनों राजकुमार ही उन्हें यहां लाए हैं। क्रांति-द्रष्टा ऋषि ने ऐसा क्या किया कि राम ने सम्पूर्ण आर्यावर्त के विरोध की ऐसी उपेक्षा कर डाली...

अहल्या स्वयं को भूल गई। अपने परिवेश को भूल गई। वर्षों से मन में जमी ग्लानि किसी अनबूझी प्रक्रिया से कृतज्ञता में परिणत हो गई। शरीर और मन की जड़ता जैसे शून्य में विलीन हो गई। एक विचित्र-सी प्रसन्नता से आंखें डबडबा आईं और वाणी वाचाल हो गई, ''तुमने मेरे चरण छुए हैं राम और लक्ष्मण! तुम्हारा कल्याण हो। इच्छा होती है कि मंे तुम्हारे चरण छू लूं।...मैं अपनी कृतज्ञता किस रूप में अभिव्यक्त करूं? तुम लोग नर-श्रेष्ठ हो। युग-पुरुष हो। कदाचित् आज तक मैं तुम लोगों की ही प्रतीक्षा कर रही थी। मैं ही नहीं, आज संपूर्ण आर्यावर्त तुम्हारे जैसे युग-पुरुष की प्रतीक्षा कर रहा है। मैं अकेली जड़ नहीं हो

गई थी, संपूर्ण आर्यावर्त जड़ हो चुका है। वे सब तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं वीर बंधुओ! तुम उनमें उसी प्रकार प्राण फूंको, जिस प्रकार तुमने मुझमें प्राण फूंके हैं। तुम उस संपूर्ण दलित वर्ग को सम्मान दो, प्रतिष्ठा दो। सामाजिक रूढ़ियों में बंधा यह समाज न्याय-अन्याय, नैतिकता-अनैतिकता आदि के विचार और प्रश्नों के संदर्भ में पूर्णतः जड़-पत्थर हो चुका है। राम! तुम इन सबको प्राण दो।...मेरी प्रतीक्षा आज पूरी हुई। मेरी साधना आज सफल हुई। तुमने आज स्वयं आकर मेरा उद्धार किया है, आज मैं निर्भय, ग्लानिशून्य मन से कहीं भी जा सकती हूं।...मेरा आत्मविश्वास लौट आया है। मैं निःसंकोच अपने पति के पास जा सकती हूं। मेरा मन किसी से आंखें नहीं चुराएगा। राम! तुमने मेरे दुविधाग्रस्त मन को विश्वास दिला दिया है कि मैं अपराधिनी नहीं हूं। वह अपराध-बोध मेरा भ्रम था।''

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    अनुक्रम

  1. प्रथम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. बारह
  24. तेरह

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