उपन्यास >> दीक्षा दीक्षानरेन्द्र कोहली
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दीक्षा
''राजन! तुम सकुशल तो हो? तुम्हारा धन-धान्य, बंधु-परिजन, मंत्री-प्रजा सब सुखी हैं? तुम्हारे शत्रु तुम्हारे अधीन हैं? तुम्हारे सेनापति तुम्हारी आज्ञा में तो हैं? तुम यज्ञ आदि देवकृत्य तथा अतिथि सेवा इत्यादि मानवकृत्य ठीक से संपन्न कर रहे हो?''
विश्वामित्र राजसभा की औपचारिकता का निर्वाह करते हुए, अपने ही मन में उसका विरोध अनुभव कर रहे थे। क्यों पूछ रहे हैं वह यह सब? क्या वह नहीं जानते कि स्थिति क्या है? संभव है, अयोध्या नगरी की स्थिति शेष प्रदेशों से कुछ उत्तम हो, किंतु सब कुछ यहां भी ठीक नहीं था...
''सब आपकी कृपा है महर्षि!'' दशरथ ने मस्तक झुका दिया।
विश्वामित्र सहसा वसिष्ठ की ओर मुड़े, ''आप प्रसन्न तो हैं ब्रह्मर्षि?''
मन ही मन वह जानते थे कि वसिष्ठ उनके आने से प्रसन्न हो नहीं सकते। उनके शिष्य-नृप की सभा में कोई अन्य ऋषि सम्मान पाए, यह उन्हें कैसे प्रिय होगा। यदि ऋषियों, विद्वानों, चिंतकों, बुद्धिजीवियों में इस प्रकार अहंकार तथा परस्पर द्वेष न होता तो आर्यावर्त और जंबूद्वीप की यह अवस्था न होती।
विश्वामित्र की जिज्ञासा के उत्तर में वसिष्ठ मुस्कराकर रह गए।
दशरथ क्रमशः साहस बटोरकर बोले, 'महर्षि! आपने यहां पधारकर मुझ दीन पर अत्यन्त कृपा की है। आदेश दें, मैं आपकी क्या सेवा करूं? मैं अपनी संपूर्ण क्षमता और अपने राज्य के साथ आपकी सेवा में प्रस्तुत हूं। आज्ञा करें।''
''राजन्!'' विश्वामित्र के मुख पर मंद हास था, ''कुछ मांगने आया हूं। बोलो, दोगे?''
''आशा करें ऋषि श्रेष्ठ!''
''प्रतिश्रुत होते हो?''
''मैं प्रतिज्ञा करता हूं।''
''तो सुनो राजन्!'' विश्वामित्र की वाणी में अपने लिए आश्वस्ति और दशरथ के प्रति व्यंग्य था, ''मैं नहीं जानता, तुम्हारी राजसभा में कितनी चर्चा राजनीति की होती है और कितनी ब्रह्मवाद की। पर संभव है कि तुम्हें यह सूचना हो कि जंबूद्वीप के दक्षिण में लंका नामक द्वीप में रावण नामक एक राक्षस बसता है।''
''रावण का नाम कौन नहीं जानता ऋषिवर!'' दशरथ का ध्यान विश्वामित्र के व्यंग्य की ओर नहीं था, ''उसने देवलोक तक पर आक्रमण किया है। सारा विश्व उससे कांप रहा है। एक बार उसने अयोध्या पर भी आक्रमण किया था और मेरे पूर्वज अनरण्य की हत्या कर दी थी।''
विश्वामित्र खुलकर मुस्कराए, ''इतना जानते हुए भी तुम इतने निश्चिंत कैसे हो राजन्? रावण अपने सैनिक-शिविरों का जाल फैलाकर, आर्यावर्त को घेर रहा है। उसका एक ऐसा ही शिविर सिद्धाश्रम के पास ताड़का वन में भी है। वहां ताड़का, उसका बेटा मारीच तथा उसका सहायक सुबाहु अपने राक्षस सैनिकों के साथ रहते हैं। उनके निरन्तर उत्पीड़न के कारण सिद्धाश्रम में न तो कोई नया प्रयोग हो सकता है, न तप, न यज्ञ, न ज्ञान-विज्ञान की चर्चा। मैं उन राक्षसों के विरुद्ध तुमसे सहायता लेने आया हूं।''
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- प्रथम खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- द्वितीय खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- बारह
- तेरह