उपन्यास >> दीक्षा दीक्षानरेन्द्र कोहली
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दीक्षा
राजा से वचन ले मंत्री राजकुमारी कैकेयी के पास गए। उन्होंने राजकुमारी से पूछा कि वह इस विकट स्थिति में अपने परिवार की रक्षा के लिए क्या कर सकती है?
कैकेयी साधारण, कोमल एवं भीरु राजकुमारी नहीं थी। वह असाधारण थी-हठीली उग्र, तेजस्विनी, महत्त्वाकांक्षिणी तथा असाधारण सुंदरी।
उसने कहा था, वह समाज की भलाई के लिए, देश के कल्याण के लिए, अपने परिवार की रक्षा के लिए, राष्ट्र के सुख के लिए सब कुछ त्याग सकती है-मान! सम्मान!! वह अपने प्राण दे सकती है। वह कठिन से कठिन दुख उठा सकती है।
उसकी दृढ़ता को देखकर मंत्रियों ने उससे कहा था, 'यदि यह सत्य है तो तुम हमारे कहे अनुसार चलो। हम तुम्हारे पिता, बंधु-बांधवों, भाइयों की रक्षा का वचन दशरथ से ले लेंगे; पर उससे पूर्व एक वचन तुम हमें दो।''
'क्या?'' कैकेयी ने पूछा था।
'सम्राट् दशरथ वृद्ध हैं। तुमसे आयु में बहुत बड़े हैं। पर यदि वह तुमसे विवाह की इच्छा प्रकट करें तो तुम अस्वीकार मत करना। इसे अपने यौवन का अपमान मत समझो। कर्त्तव्य समझकर इस कर्म को करो, ताकि तुम्हारे परिवार तथा देश की रक्षा हो सके।''
और कैकेयी ने यह सब करने का वचन मंत्रियों को दिया था। मंत्रियों ने दशरथ को इस बात के लिए मनवा लिया कि वह कैकय-राजपरिवार को कोई दंड देने से पूर्व परिवार के सदस्यों से मिल लें। दशरथ ने राजप्रासाद के अंतःपुर में प्रवेश किया। उन्होंने रूपवती कैकेयी को देखा तो उनकी आंखें खुली की खुली रह गई। इससे पूर्व उन्होंने ऐसा सौन्दर्य नहीं देखा था-गोरा रंग, कुछ-कुछ लालिमा लिए हुए नीली गहरी झील जैसी आंखें; कुछकुछ पीले, लम्बे घने बाल; ऊंची तीखी नुकीली नाक, पतले लाल होंठ, लम्बा कद, स्वस्थ यौवन।
दशरथ ने तुरन्त निर्णय लिया कि उन्हें क्या करना है। कैकय-नरेश के साथ संधि की पहली शर्त थी-कैकेयी का कन्यादान।
और तब शर्त रखने की बारी कैकय-नरेश की थी। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा था, सम्राट्, यदि मुझे एक वचन दें तो मैं कैकेयी का विवाह आपसे कर दूंगा।''
'कैसा वचन?''
'कैकेयी का पुत्र ही अयोध्या का युवराज होगा!''
दशरथ ने तत्काल वचन दिया और कैकेयी से विवाह कर लिया। कैकेयी अयोध्या में आई और सबने उसे देखा। वह सुदूर कैकय देश के उन्मुक्त आर्यों की पुत्री थी। वह मानव-वंश की स्त्री-विरोधी मर्यादाओं से अनजान, स्वच्छंद वातावरण में पली राजकुमारी थी। जब दशरथ युद्ध में जाते तो वह कौसल्या के समान घर पर बैठ भगवान विष्णु के सम्मुख अपने पति की रक्षा की प्रार्थना नहीं करती थी, वह युद्ध की बात सुनते ही कवच पहन पति के साथ चलने को तैयार हो जाती थी। कैकेयी युद्ध में जा सकती थी, धनुष-बाण का प्रयोग जानती थी, खड्ग चला सकती थी और कोसल के अच्छे से अच्छे सारथी से रथ-संचालन की कुशलता में होड़ ले सकती थी...। शंबर के साथ हुए युद्ध में भी वह साथ गई थी। जब वह घायल सम्राट् को लेकर वापस अयोध्या लौटी थी तो अयोध्या के जन-जन के मुख पर यही बात थी कि यदि कैकेयी न होती तो सम्राट् के प्राण न बच पाते। तब कौसल्या कहीं कैकेयी की कृतज्ञ भी हुई थी। आखिर उसने कौसल्या के पति के प्राण बचाए थे।
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- प्रथम खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- द्वितीय खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- बारह
- तेरह