लोगों की राय

उपन्यास >> दीक्षा

दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14995
आईएसबीएन :81-8143-190-1

Like this Hindi book 0

दीक्षा

विश्वामित्र ने सुकंठ के सिर पर हाथ फेरा। उन्हें शब्द नहीं सूझ रहे थे। कैसे वह अपने मन की पीड़ा सुकंठ तक पहुंचाएं। क्या उसके केशों पर फिरता उनका यह हाथ शब्दों से कुछ अधिक कह पाएगा...?

वह द्वार की ओर बढ़ चले।

चिकित्सा-कुटीर से बाहर निकलते हुए विश्वामित्र के चेहरे पर निर्णय की दृढ़ता थी। यह निर्णय कितनी बार उभर-उभरकर उनके मस्तिष्क की ऊपरी तहों पर आया था, पर उन्होंने हर बार उसे स्थगित कर दिया था। किंतु अब और शिथिलता नहीं दिखानी होगी...।

अपनी कुटिया में आकर, अपने आसन पर बैठते ही उनके भीतर का चिन्तक जागरूक हो उठा। कर्मण्य विश्वामित्र फिर कहीं सो गया और चिंतक विश्वामित्र चेतावनी देने लगा-'ठीक से सोच ले विश्वामित्र! यह न हो कि गलत निर्णय के कारण अपमानित होना पड़े। सोच, सोच, अच्छी तरह सोच...।'

विश्वामित्र के मन में कर्म का आवेश फेन के समान बैठ गया। शीघ्रता विश्वामित्र के लिए नहीं है। वह जो कुछ करेंगे, सोच-समझकर करेंगे। एक बार कार्य आरंभ कर पीछे नहीं हटना है। अतः काम ऊपर से आरंभ करने के स्थान पर नीचे से ही आरंभ करना चाहिए। जब सूई से ही कार्य हो सकता है, तो खड्ग का उपयोग क्यों किया जाए?

''पुनर्वसु!''

''गुरुदेव!''

''पुत्र! मुनि आजानुबाहु को बुला लाओ। कहना, आवश्यक कार्य है।''

पुनर्वसु चला गया और विश्वामित्र अत्यन्त उद्विग्नता से मुनि आजानुबाहु की प्रतीक्षा करते रहे...विश्वामित्र का मन कभी-कभी ही ऐसा उद्विग्न हुआ था...।

मुनि ने आने में अधिक देर नहीं लगाई।

''आर्य कुलपति!''

''मुनि आजानुबाहु!'' विश्वामित्र ने कोमल आकृति वाले उस अधेड़ तपस्वी की ओर देखा, ''आपके व्यवस्था-कौशल, आपके परिश्रमी स्वभाव, तथा आपके मधुर व्यवहार को दृष्टि में रखते हुए एक अत्यन्त गंभीर कार्य आपको सौंप रहा हूं।''

''कुलपति आज्ञा करें।'' मुनि ने सिर को तनिक झुकाते हुए कहा।

''कुछ शिष्यों को साथ लेकर आप आश्रम से लगते हुए सभी ग्रामों में घूम जाएं-ग्राम चाहे आर्यों के हों, निषादों के हों, शबरों के हों अथवा भीलों के हों, सभी ग्राम-प्रमुखों को इस घटना की सूचना दें, उनसे कहें कि वे लोग आश्रमवासियों की सुरक्षा का प्रबन्ध करें, और...'' विश्वामित्र का स्वर कुछ आवेशमय हो उठा, ''और यदि वे लोग कुछ आनाकानी करें तो कुछ आगे बढ़ सम्राट दशरथ की सीमा-चौकी पर नियुक्त राज-प्रतिनिधि सेनानायक बहुलाश्व के पास जाकर निवेदन करें। उसे सारी स्थिति समझाएं और उसे कहें कि वह अपराधियों को पकड़कर दंडित करे। यह ठीक है कि यह क्षेत्र उसकी सीमा में नहीं है, किंतु सीमांत की भूमि शत्रु के लिए इस प्रकार असुरक्षित नहीं छोड़ देनी चाहिए। नहीं तो ये ही घटनाएं उसकी सीमा के भीतर होने लगेंगी।''

मुनि ने एक बार पूरी दृष्टि से विश्वामित्र को देखा और सिर झुका दिया, ''आपकी आज्ञा का अक्षरशः पालन होगा।''

प्रणाम कर वह जाने के लिए मुड़ गए।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. प्रथम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. बारह
  24. तेरह

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai