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उपन्यास >> दीक्षा

दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14995
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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दीक्षा

''सोचना यह है, पुत्र! ये समस्त ऋषि अपनी सुरक्षा के लिए, अपने पक्ष की रक्षा के लिए याचना करने, निवेदन करने, तुम तक नहीं आएंगे। तुम्हें स्वयं उनका शोध कर, उन तक पहुंचना होगा। आदर्श शासन व्यवस्था वह है, जो स्वयं नागरिक तक पहुंचकर, उससे पूछती है, 'तुम्हें क्या कष्ट है?' जिस शासन-व्यवस्था में नागरिक को स्वयं परिवाद लेकर शासन तक पहुंचना पड़ता है, वह आदर्श व्यवस्था नहीं होती। तुम मुझे वचन दो कि तुम अपने राज्य और उसके बाहर भी आदर्श व्यवस्था स्थापित करोगे-एक राजा के रूप में भी, और एक मनुष्य के रूप में भी। तुम अपना प्रासाद, अपना सिंहासन, अपना राज्य छोड़कर, अकेले, पदाति वन-वन घूम कर गहन वनों में उन ऋषियों के आश्रमों को खोजोगे। उनकी रक्षा क्योगे, और उनके शत्रु राक्षसों का समूल नाश करोगे। तुम इस बात की प्रतीक्षा नहीं करोगे कि पहले राक्षस तुम्हें पीड़ित करें। तुम रुके नहीं रहोगे कि पहले रावण अयोध्या पर आक्रमण करे। तुम स्वयं अन्याय का नाश करने का प्रण करके घर से निकल पड़ोगे।''

''गुरुदेव!...'' राम कुछ कहने को उत्सुक हुए।

ऋषि ने अपने हाथ के संकेत से निवारण किया और बोलते गए, ''राम! जब भी कभी तुम घर छोड़ने की बात सोचोगे, तुम्हारे मार्ग में बाधास्वरूप तुम्हारे पिता होंगे, तुम्हारी माताएं होंगी, तुम्हारे भाई-बंधु होंगे। यदि तुम अपने भीतर की दुर्बलताओं से लड़ भी लोगे, तो यह बाहर की बाधाएं, तुम्हें वन नहीं जाने देंगी। वे लोग बेड़ियों के समान तुम्हारे पैरों में लिपट जाएंगे। क्या तुम झटका देकर अपने चरण छुड़ा सकोगे? अच्छी तरह सोच लो। यदि सैनिक अभियानों से यह कार्य संभव होता तो कोई भी सम्राट् यह कार्य कर सकता था। किंतु उन दुरूह वनों में, पर्वतों पर सैनिक-अभियान संभव नहीं है पुत्र! वहां तो एकाकी, पदाति ही जाना होगा। अपने शारीरिक बल, अपने दिव्यास्त्रों, अपने शस्त्र-ज्ञान, अपने मनोबल, अपनी न्याय-बुद्धि से लड़ना होगा पुत्र! और वे लोग, जिनकी रक्षा की बात मैं कर रहा हूं तुम्हारे राज्य के प्रजाजन नहीं हैं। संभव है, वे राजा के रूप में तुम्हें सम्मान न दें। संभव है, उनसे तुम्हें कोई कर न मिले। इसलिए पुत्र, अपना राजकीय कर्त्तव्य न समझकर, मानवीय कर्त्तव्य के रूप में, किसी भी प्रतिदान की इच्छा के बिना, उनके अभाव में तुम्हें कर्म करना होगा।...अब सोचने के लिए, जितना समय चाहो लो। सोच-समझकर अपने निर्णय की सूचना मुझे दो।''

राम के मन में विभिन्न दशओं में व्याकुल टक्करें मारती ऊर्जा की क्षुब्ध चपलाओं में जैसे सामंजस्य स्थापित हो रहा था।-वे एक आकार ग्रहण करती जा रही थीं। उनके भीतर का कुछ कर गुजरने का संतोष जैसे आधार पाकर उस पर टिक, शांत होता जा रहा था।

राम उसी प्रकार सरल मुद्रा में मंद-मंद मुस्कराते रहे। और उसी मुस्कान के मध्य पहले से कुछ अधिक ललक के साथ बोले, ''ऋषिवर! कोई और चेतावनी देनी हो, दे लें। कोई और कठिनाई मार्ग में आती हो, तो जता दें। किसी और बाधा को इंगित कर सकते हों तो कर दें। वचन मैं उसके पश्चात् ही दूंगा।''

विश्वामित्र हलके मन से हंसे। बोले, ''राम! मुझे और कुछ नहीं कहना।''

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    अनुक्रम

  1. प्रथम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. बारह
  24. तेरह

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