उपन्यास >> दीक्षा दीक्षानरेन्द्र कोहली
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दीक्षा
विश्वामित्र अनायास ही इन प्रश्नों का समाधान करने लगे, ''पुत्र! जो कुछ मैं सुनाने जा रहा हूं, है वह इतिहास ही...। संभव है, इसके कुछ अंश उड़ते-उड़ते तुमने कहीं से सुने भी हों। पर मैं इसे इतिहास के रूप में नहीं सुना रहा हूं। मैं कथा के रूप में ही सुनाऊंगा। यह इसलिए कि मैं तुम्हें वह सब बता सकूं, जो कुछ मैंने देखा है, जो कुछ मैंने सुना है, जो कुछ मैंने समझा और अनुमान किया है, जो कुछ मैंने कल्पना की है...।''
''कथा क्या ऐसे ही बनती है गुरुवर?'' लक्ष्मण की आंखों में किंचित् विस्मय था।
''हां पुत्र। कथा ऐसे ही बनती है।'' विश्वामित्र बोले, ''जब आख्याता ईश्वर के समान सर्वज्ञ होकर, तथ्यों और पात्रों के मन में जा समाता है-वह सब कुछ जानता है। वह तथ्यों और पात्रों के आर-पार देख सकता है, पारदर्शी स्वच्छ जल के समान, जब उसकी सूचनाओं में कोई अभाव नहीं रहता, कुछ छूटता नहीं, वह सारी रिक्तियां अपनी कल्पना और अनुभूति से भर देता है, तो वह कथा होती है लक्ष्मण।''
''सुनाएं गुरुदेव।'' लक्ष्मण उल्लसित हो उठे, ''कितना मजा रहेगा-भैया राम का संग, प्रकृति की शोभा, नये-नये स्थान, और गुरुदेव सुना रहे हों, ऐतिहासिक कथा!''
''तो सुनो पुत्र!'' गुरु फिर कहीं अन्यत्र खो गए। वे अपने मन का निरीक्षण कर रहे थे, उसमें बसी घटनाओं और चित्रों को उलट-पलट रहे थे। वे किसी और ही संसार में जा पहुंचे थे।
राम और लक्ष्मण, गुरु से सटते हुए से, उत्सुक दुष्टि से उनके मुख की ओर देखते हुए से चल रहे थे। पुनर्वसु तथा अन्य ब्रह्मचारी भी अपनी नियमित दूरी छोड़कर, अपेक्षाकृत कुछ निकट आ गए थे। केवल सामान ढोने वाले छकड़े ही पीछे छूट गए थे।
गुरु ने कथा आरंभ की।
गौतम का अनेक वर्षों पुराना स्वप्न आज पूरा हुआ था।
मिथिला प्रदेश ही नहीं, उसके बाहर से भी अनेक ऋषि अपने पट्ट शिष्यों के साथ उनके आश्रम में पधारे थे। गौतम और उनके आश्रम को ही नहीं, मिथिला प्रदेश के 'ज्ञान' को मान्यता मिली थी। सात दिनों का सम्मेलन था। सात दिनों तक ये समस्त अभ्यागत ऋषि उनके आश्रम की शोभा बढ़ाएंगे। वे लोग व्याख्यान देंगे, मिलकर विचार-विमर्श करेंगे। अनेक समस्याएं और गुत्थियां सुलझाएंगे। और सबसे बड़ी बात यह थी कि उन ऋषियों के साथ आए सैकड़ों ग्रंथ इन दिनों गौतम के आश्रम के किसी भी ब्रह्मचारी के लिए सहज उपलब्ध होंगे। इन सात दिनों में जो आचार्य, मुनि अथवा ब्रह्मचारी इन ग्रन्थों को लेकर जितना परिश्रम करेगा, वह उतने ही लाभ में रहेगा।
गौतम का अपना मन अभ्यागतों के द्वारा प्रदर्शित इन ग्रंथों के प्रति अत्यन्त लोलुप हो रहा था। कोई नवीन ग्रन्ध देखते ही. उनके भीतर बैठा ग्रन्धों का लोभी कोई राक्षस जाग उठता है। मुंह से लार टपकने लगती है। इच्छा होती है. सारे अन्ध पड जाएं, उनकी प्रतिलिपि कर लें, उन्हें किसी प्रकार अपने पास रख लें...। गौतम ने अपने प्रत्येक लोभ
को जीता है, किंतु ग्रन्थ-लोभ को वे नहीं जीत पाए हैं। जीतना चाहते भी नहीं। इस लोभ को तो वे सायास पोषित कर रहे हैं। जितना बढ़ सकता है, बड़ा रहे हैं...यही तो उनका धन है, उनके जीवन की उपलब्धि है।
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- प्रथम खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- द्वितीय खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- बारह
- तेरह