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उपन्यास >> दीक्षा

दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14995
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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दीक्षा

राम शांत मन से खड़े ऋषि की पीड़ा को समझने का प्रयत्न कर रहे थे, और लक्ष्मण कुछ अटपटा-से गए थे। गुरु की आंखों के अश्रु उन्हें स्थिर नहीं रहने दे रहे थे। उनका बालक मन कोई उपाय नहीं ढूंढ़ पा रहा था...। सहसा उन्होंने आगे बढ़कर गुरु की भुजा पकड़कर हिलाई और मचलकर कहा, "गुरुदेव! कथा सुनाएं न...।''

"कथा।'' विश्वामित्र जैसे जाग पड़े, "हां कथा सुनो पुत्र।''

गुरु ने अपनी आंखें पोंछ लीं। मन को सहज कर लिया। उन्होंने पग आगे बढ़ा दिए। सब लोग चल पड़े।

कुटीर को पूर्णतः सुसज्जित कर, इन्द्र के आने की सूचना पाकर, अहल्या को संग ले गौतम उसके स्वागत के लिए आश्रम के मुख्य द्वार पर पहुंचे।

तब इन्द्र आज के समान वृद्ध नहीं था। वह ढलती आयु का प्रौढ़ पुरुष था। इन्द्र अपने आकाशगामी विमान से आया था। उसके साथ अनेक अन्य विमान थे, जिनमें उसके सैनिक, सेवक तथा दासियां थीं। उनका वैभव देवराज के अनुकूल ही था।

गौतम और अहल्या ने आगे बढ़कर उसका स्वागत किया, पूजन किया, और उससे आश्रम में पधारने की प्रार्थना की।

इन्द्र ने पूजन स्वीकार किया, सीरध्वज से भेंट की; अपने साथ आए सैनिकों तथा सेवकों को आश्रम से बाहर शिविर स्थापित कर, ठहर जाने का आदेश देकर, उसने आश्रम में प्रवेश किया। यद्यपि उसने आश्रम में पदाति प्रवेश किया था, किन्तु उसका विमान उसके निजी सेवकों द्वारा, आश्रम के भीतर उसके ठहरने के कुटीर के पास पहुंचा दिया गया था, ताकि आवश्यकता होने पर देवराज को कोई असुविधा न हो।

गौतम इन्द्र से बातचीत कर रहे थे। आश्रम में पधारने के लिए वे उसके प्रति आभार प्रकट कर रहे थे। किन्तु सभी उपस्थित जन ने देखा था कि इन्द्र का ध्यान गौतम तथा उनके आभार-ज्ञापन की ओर नहीं था। उसकी दृष्टि किसी न किसी व्याज से, प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से अहल्या की ओर घूम जाती थी। उसकी आंखों का भाव, आश्रम के कुलपति की अर्द्धागिनी की श्रद्धा से सर्वथा अछूता था...। उसके भावों का कुछ-कुछ आभास, सभी को हो रहा था; किन्तु वह देवराज था, आश्रम में मिथला-नरेश तथा कुलपति का आमंत्रित अभ्यागत होकर आया था। धन, सम्पत्ति, सत्ता, शक्ति, मान-मर्यादा, पद इत्यादि की दृष्टि से सब पर भारी पड़ता था। फिर, चाहे आश्रम के बाहर ही ठहरे हुए क्यों न हों, उसके पास पर्याप्त सैनिक थे...। उसकी इन छोटी-मोटी अभद्रताओं के विरुद्ध आपत्ति नहीं की जा सकती थी।

अन्त में, कुटीर के द्वार पर उसे छोड़ते हुए गौतम ने कहा, "देवराज! हम आपके वैभव के अनुकूल, आपका आतिथ्य नहीं कर सकते, किन्तु आशा है, आश्रम-भूमि जानकर, आप इन अभावों की ओर ध्यान नहीं देंगे।''

और इन्द्र ने, उपस्थित समुदाय के लिए सर्वथा अप्रत्याशित कर्म किया। वह अहल्या की ओर मुड़ा, "देवी अहल्या! आप जैसी त्रैलोक्य सुंदरी के लिए, यह अभावमय आश्रम तो अत्यन्त कष्टदायक होगा। मैं यहां से लौटकर, आपके सुख के लिए कोई प्रयत्न करूंगा।''

उपस्थित समुदाय अटपटा गया। गौतम ज्वलन्त रोष से तपकर एकदम लाल हो गए। सीरध्वज की आकृति निष्प्रभ हो गई। अहल्या ने अत्यन्त पीड़ित तथा अपमानित दृष्टि से, उपालंभ-सा देते हुए, अपने पति की ओर देखा; और कुलपति की धर्मपत्नी के कर्त्तव्य का निर्वाह करती हुई, अतिथि इन्द्र से बोली, "देवराज! आप हमारे लिए चिन्ता न करें। आश्रमवासी अपने धर्म का निर्वाह करते हैं। आश्रम के कुलपति की धर्मपत्नी के रूप में मिलने वाला सम्मान ही मेरा सुख-वैभव है।''

और सबके देखते-देखते, अहल्या अपने पुत्र शत को गोद में उठा, अपनी कुटिया की ओर चली गई।

इन्द्र को जैसे उपस्थित ऋषियों, आचार्यों तथा ब्रह्मचारियों में कोई रुचि नहीं रह गई। वह भी अपने कुटीर में विश्राम करने चला गया।

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    अनुक्रम

  1. प्रथम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. बारह
  24. तेरह

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