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उपन्यास >> दीक्षा

दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14995
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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दीक्षा

राम ने गुरू-निर्देशित दूसरे उपकरण को पैरों से दबाया...शरीर की शक्ति दो भाग में बंट रही थी। कमर से नीचे का शरीर, पैरों के नीचे के उपकरण को दबा रहा था, और कमर के ऊपर का शरीर हाथ में पकड़ी कल को अपनी ओर खींच रहा था।...अपूर्व शक्ति का संतुलित प्रयोग...बल, कौशल, ज्ञान और संतुलन...।

विश्वामित्र देख रहे थे-राम के शरीर की पेशियां कठोर होती जा रही थीं। शरीर सधता जा रहा था। सारा रक्त जैसे चेहरे पर संचित होता जा रहा था...और...और...।

लक्ष्मण नेत्रों में विकटता और करुणा साथ-साथ भरे, देख रहे थे...भैया राम अकल्पनीय शारीरिक पीड़ा की स्थिति में से गुजर रहे थे, मानो; दो विकट शक्तियां उनके शरीर को, हाथों और पैरों से पकड़कर, दो विरोधी दिशाओं में खींच रही थीं। उनका शरीर जैसे नाभि के पास से टूटने-टूटने को हो रहा था...।

लक्ष्मण का मन तड़प उठा-वह भैया की सहायता कैसे करें? कैसे असहाय हो गए हैं लक्ष्मण! वह देख रहे हैं कि भैया एक विकट परीक्षा में से गुजर रहे हैं, किंतु वह कुछ नहीं कर सकते। इसे तो भैया को अकेले ही सहना था, एकदम अकेले...।

लक्ष्मण अपनी असहायता से क्षुब्ध हो उठे थे।

सीता को लगा, राम लोहे के पर्वत से जूझ रहे थे; उसे तोड़ डालने के लिए कटिबद्ध थे, दृढ़ प्रतिज्ञ...जैसे वह लोहे का पर्वत, उनके और सीता के बीच की प्राचीर हो, जिसके टूट जाने से वह दोनों आमने-सामने होंगे, एक-दूसरे के पास, एक-दूसरे के साथ...। पर लोहे का पर्वत भी क्या कभी मानव-शरीर की शक्ति से टूटा है? सीता के मन में पचासों चीत्कार बवंडर मचाने लगे...राम! मेरे राम! यह सब मेरे लिए है, मेरे लिए। मेरे सम्मान के लिए, मेरे प्यार के लिए-यह अकल्पनीय परिश्रम, यह दुसह्य यातना...राम! मेरे राम...'

राम के पैरों के नीचे की कल धंसी और तत्क्षण ही हाथ की कल अपने स्थान से डोली...राम के शरीर के बल के साथ-साथ उनकी आत्मा का बल भी, उनके हाथों-पैरों में समा गया... प्रयत्न...प्रयत्न...और...और...।

उपस्थित जन-समुदाय ने अभूतपूर्व आश्चर्य से देखा : उनकी आंखों के सम्मुख, सर्वथा असंभव, संभव हो रहा था; अपूर्व घटित हो रहा था। उस विराट् यंत्र का एक खंड, अकस्मात् ही ऊपर उठता जा रहा था, जैसे कोई लोहे का हाथी, भयंकर मुद्रा में अपनी सूंड उठाकर, प्रहारक भंगिमा ग्रहण कर रहा हो।...शिव-धनुष अब जड़ नहीं था, वह सक्रिय हो उठा था। मानो राम के इंगित के अनुसार, उसकी प्रत्यंचा चढ़ती जा रही थी...

राम को गुरु ने बताया था कि यह अजगव की भुजा थी। इसी के द्वारा धारण कर , अनेक दिव्यास्त्र शत्रु की ओर प्रक्षेपित किए जाते थे; यही भुजा शत्रुओं का काल थी।

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    अनुक्रम

  1. प्रथम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. बारह
  24. तेरह

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