उपन्यास >> दीक्षा दीक्षानरेन्द्र कोहली
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दीक्षा
...विवाह की बात एक ओर है। वह जिस समय विश्वामित्र के साथ आए थे, विवाह करने के लिए नहीं आए थे। न्याय का पक्ष-ग्रहण कर वह अन्याय के विरुद्ध लड़ने आए थे। आज यदि इस अवसर का उपयोग कर, शिव-धनुष-परिचालन कर, और अंततः उसे भंग कर, वह अपनी वीरता, दक्षता, सक्षमता का प्रमाण देते हैं; और एक वीर के रूप में प्रतिष्ठित होते हैं, तो अन्याय का विरोध करने के लिए उसका लाभ ही होगा...। फिर सीता जैसी उपयुक्त संगिनी उन्हें मिलेंगी।...सीता अपनी अज्ञातकुलशीलता के लिए अपमानित होने से बचेगी, सीरध्वज को किसी न किसी व्याज से कलंकित नहीं किया जा सकेगा...सब कुछ ही शुभ होगा...।
...फिर गुरु की आशंका, उनके मन में घिर आई...। शिव-धनुष यदि कहीं राक्षसों के हाथ में पड़ गया; और उन्होंने उसकी परिचालन विधि सीख ली, तो समस्त आर्य-सम्राट् उनके द्वारा अत्यन्त पीड़ित होंगे...राम को सबका उद्धार करना होगा...सबका...देश का, समाज का, सीरध्वज का, सीता का...और...और...राम के मन का...यही राम का धर्म है, यही समय का सत्य है...खंण्ड-सत्य सत्य नहीं होता-सामूहिक सत्य ही सत्य हो सकता है...राम का एकमात्र धर्म अजगब-परिचालन है...इस समय द्वन्द्व क्यों है? निर्णय तो वे ले ही चुके हैं। यह कर्म के पहले की माया है, माया...राम की समस्त ऊर्जा उनकी भुजाओं में संचित होने लगी...।
राम अपने चिंतन से उभरे और कर्म की ओर उन्मुख हुए।
असाधारण आत्म-विश्वास के साथ, अत्यन्त जानकार की भांति, उन्होंने गुरु के निर्देशानुसार, उस यंत्र की कल पर हाथ रखा...।
कल का निर्माण कुछ इस ढंग से हुआ था कि कहीं कोई जोड़ दिखाई नहीं पड़ता था। वह हिलाए-डुलाए जा सकने वाली, यंत्र की कल के बदले, उस विशाल यंत्र का एक अंग ही लगती थी, जिसे हिलाने का प्रयत्न व्यर्थ था। इसका निर्माण करने वाला व्यक्ति निश्चित् रूप से अद्भुत शिल्पी था; और उसके पास धातुओं को गलाने और डालने का कार्य करने की, जैसी विकसित विधि थी, वैसी आर्यावर्त में अन्यत्र कहीं नहीं थी। तभी तो संपूर्ण आर्यावर्त के लिए यह यंत्र आश्चर्य की वस्तु था, उसके स्वरूप की उपयुक्त कल्पना न होने के कारण, आर्य भाषाओं में कोई उपयुक्त संज्ञा भी नहीं थी। उसे 'धनुष' कहकर पुकारा जाता था, जैसे वह भी बीस और डोरी का साधारण धनुप हो।..अवश्य ही महादेव शिव दिव्यास्त्रों के अद्भुत निर्माता थे...कभी राम को भी अस्त्रों की सहायता के लिए शिव के पास जाना होगा।
राम ने मुट्ठी में पकड़ी कल को अपनी ओर खींचा। लगा, उनके बल का, उस पर कोई प्रभाव नहीं हो रहा। वह ऐसी जड़ वस्तु है, जो अपने स्थान से हिल नहीं सकती।...राम ने प्रयत्न कर अपने शरीर की समस्त शक्ति का अपनी बांहों में आह्मन किया...। कल को पूरी शक्ति से अपनी ओर खींचा। कल अब भी अपने स्थान पर स्थिर थी...कुछ भी नहीं...कोई प्रभाव नहीं...कोई परिवर्तन नहीं।...जैसे सब कुछ जड़ हो, स्थिर अपरिवर्तनीय...किंतु राम हताश नहीं हो सकते...गुरु के शब्द उनके मस्तिष्क में गूंज रहे थे-'बल और कौशल दोनों के प्रयोग...बल और कौशल दोनों...
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- प्रथम खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- द्वितीय खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- बारह
- तेरह