उपन्यास >> दीक्षा दीक्षानरेन्द्र कोहली
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दीक्षा
और गुरु ने पीछे की ओर गर्दन मोड़कर आदेश दिया, ''नाविक! नौका घाट पर लगाओ।''
घाट से कुछ दूर चलकर वन के भीतर, खुला स्थान देखकर विश्वामित्र ने राम का प्रशिक्षण आरम्भ किया, ''रघुनन्दन! तुम्हारा कल्याण हो। यह दिव्य और महान् दंड चक्र, यह धर्म चक्र, यह काल चक्र, यह विष्णु चक्र तथा वह अत्यन्त भयंकर ऐन्द्र चक्र है। राघव! यह शिव का श्रेष्ठ त्रिशूल, यह इंद्र का वज्रास्त्र, यह ब्रह्मा का बह्म शर है। यह ऐषीकास्त्र और यह परम उत्तम ब्रह्मास्त्र है। पुत्र! ये मोदकी और शिखरी नामक गदाए हैं। पुरुष सिंह। ये धर्मपाश काल-पाश और वरुणपाश नामक उत्तम अस्त्र हैं। राम! तामस, महाबली, सौमन, संवर्त, दुर्जय, मौसल, सत्य और मायामय उत्तम अस्त्र भी मैं तुम्हें अर्पित करता हूं। सूर्य का तेजःप्रभ अस्त्र भी तुम्हें देता हूं। सोम का शिशिर नामक अस्त्र और मनु का शीतेषु नामक अस्त्र भी तुम लो...। और महाबाहु! अब इनके प्रयोग की विधि भी सीख लो।''
राम जैसे एक नये चमत्कारिक लोक में आ गए थे। कैसी विचित्र बात थी। अपने शिक्षणकाल में गुरु वसिष्ठ ने इन अस्त्रों की कभी चर्चा भी नहीं की थी। और विश्वामित्र उन्हें वे अस्त्र दे रहे थे-साक्षात्। राम का मन विश्वामित्र के प्रति श्रद्धा से भर उठा...।
''पुत्र राम!'' विश्वामित्र पूर्वाभिमुख होकर बैठ गए थे, ''मेरे सम्मुख बैठ जाओ और इन अस्त्रों की परिचालन-विधि को ग्रहण करो।''
सम्मोहित-से राम गुरु की महिमा से सर्वथा अभिभूत, गुरु के सम्मुख बैठ गए।
गुरु ने उपदेश आरंभ किया, ''कुकुत्स्थनंदन! यह दंडचक्र...''
गुरु का उपदेश चलता रहा और राम उन्हें आंखों और कानों से पीते रहे। उनके सामने ज्ञान और कर्म का सर्वथा अपरिचित, अभिनव खुलता जा रहा था...।
वे लोग पुनः चल पड़े थे। आगे-आगे विश्वामित्र, राम एवं लक्ष्मण तथा पीछे-पीछे शिष्यों की मंडली। वन पर्यात गहन था। दीर्घाकार, ऊंचे तथा घने वृक्ष, और उन पर छाई हुई लताएं, जैसे वृक्षों में रस्सियां बांध झूले डाले गए हों।
सूर्यास्त का समय था। प्रकाश क्रमशः क्षीण होता जा रहा था, और अंधकार क्षण-क्षण बढ़ता जा रहा था। बीच-बीच में किसी वन्य पशु का स्वर वायु में तैर जाता था।
विश्वामित्र अत्यधिक सचेत लग रहे थे। उनके नेत्र, दृष्टि में आने वाली प्रत्येक वस्तु को बड़ी सावधानी से परख रहे थे, कान प्रत्येक ध्वनि का विश्लेषण कर रहे थे, तापस-मंडली अवश्य कुछ भयभीत थी। ताड़का वन का आतंक उन पर छाता जा रहा था। उनका भय से पीला पड़ता हुआ मुख देखकर कोई भी कह सकता था कि यदि वे गुरु की आज्ञा के अधीन न होते, यदि उनका अपना वश चलता तो वे लोग इस समय कदापि वन में प्रवेश न करते। किंतु गुरु की आज्ञा...।
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- प्रथम खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- द्वितीय खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- बारह
- तेरह