उपन्यास >> दीक्षा दीक्षानरेन्द्र कोहली
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दीक्षा
राम एवं लक्ष्मण अत्यन्त सहज भाव से निश्शंक गुरु के साथ बढ़ते चले जा रहे थे, जैसे वह ताड़का वन न होकर, अयोध्या का राजमार्ग हो। राम के मुख पर एक सहज हास था-उनका मुख उस बालक का-सा सरल था, जिसका भय से अभी परिचय भी नहीं हुआ; और लक्ष्मण तो मुग्ध भाव से वन की शोभा देखते हुए बढ़ रहे थे। ऐसा घना वन उन्होंने जीवन में पहली बार देखा था-अयोध्या के आस-पास तो ऐसा वन एक भी नहीं था...। राक्षसों की कोई चिंता उन्हें हो, ऐसा नहीं लगता था।
सहसा विश्वामित्र की संपूर्ण सचेत ज्ञानेन्द्रियां जैसे किसी अदृश्य बिंब पर केन्द्रित हो गईं...वह शून्य में से जैसे किसी स्वर को पकड़ने का प्रयत्न कर रहे थे।
और अपने इसी प्रयत्न के बीच वह बोले, ''राम! प्रायः इसी समय राक्षस लोग अपनी बस्ती से वन में निकल पड़ते हैं। ताड़का के भ्रमण का तो यही प्रिय समय है। अनेक अस्पष्ट शब्दों से मुझे ऐसा कुछ आभास मिल रहा है पुत्र कि ताड़का इधर आ रही है। यदि इस प्रकार भ्रमण करती हुई निःशस्त्र ताड़का हमें दिखाई पड़ जाए तो यह अत्यन्त शुभ होगा। यदि मेरा अनुमान ठीक हुआ तो थोड़ी ही देर में हम ताड़का के आमने-सामने होंगे। राम! तब के लिए दो-एक बातें कहना चाहता हूं। यह न हो कि ताड़का को सम्मुख देखकर तुम इस धर्मसंकट में पड़ जाओ कि वह निःशस्त्र है। रघुनन्दन! क्षत्रियों के युद्ध के नियम केवल उन क्षत्रियों के साथ युद्ध के लिए हैं, तो उन नियमों की मर्यादा मानकर युद्ध करते हैं। ये राक्षस युद्ध के उन नियमों को एकदम नहीं मानते, अतः उन नियमों का विचार मत करना। यदि तुम नियगाधीन धर्म-युद्ध करना चाहोगे, तो वह संभव नहीं होगा...और..." विश्वामित्र ने रुककर राम को देखा, ''और तात! यह बात भी मन में मत लाना कि वह स्त्री है और क्षत्रिय होकर स्त्री का वध करना तुम्हारे लिए धर्मोचित नहीं है। ऐसे नियमों के पीछे प्रायः धर्म-बुद्धि कार्य करती है; किंतु इस समय ऐसे नियमों का विचार सर्वथा अधर्म होगा। इस समय तुम्हारा मात्र एक धर्म है-राक्षस वध।''
राम बड़े स्थिर भाव से धर्म की इस नई व्याख्या को सुन रहे थे। लक्ष्मण के मन में पर्याप्त उथल-पुथल मची हुई थी। उनके मन में विवाद की बात उठ रही थी, वे विश्वामित्र का प्रतिवाद करना चाहते थे; पर बड़े भाई की ओर देखकर चुप थे। राम का गांभीर्य उन्हें सदा ही आश्चर्यचकित कर देता था। प्रत्येक नई बात को राम कितनी सहजता से सुनते और तौलते थे-प्रतिवाद करना होता, तो सब कुछ तौल-परख करने के बाद करते। और लक्ष्मण के मन में तुरंत खलबली मच जाती थी-भीतर से जैसे कोई बार-बार उन्हें ठेलता, "उत्तर दो। उत्तर दो।'' पर इस समय लक्ष्मण भी कुछ नहीं बोल सके।
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- प्रथम खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- द्वितीय खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- बारह
- तेरह