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उपन्यास >> दीक्षा

दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14995
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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दीक्षा

तभी गुरु विश्वामित्र ने अंतिम आहुति डाली।

गुरु यज्ञ-वेदी से उठे तो राक्षसों को खदेड़ने गए हुए ग्रामीण तथा निषाद योद्धा लोग लौट आए थे।

विश्वामित्र ने अत्यन्त गद्गद् हो, स्नेह के आवेश में राम को कंठ से लगा लिया, "तुम समर्थ हो राम! आज कितने समय के पश्चात् सिद्धाश्रम में यज्ञ निर्विघ्न समाप्त हुआ।"

गुरु ने लक्ष्मण को वक्ष से चिपकाकर आशीर्वाद दिया, "सदा राम के योग्य भाई सिद्ध होओ।''

ग्रामों के मुखियी लोग आकर गुरु के चरणों पर गिर पड़े। गुरु जैसे चिर प्रतीक्षित अपनी सफलता की प्रसत्रता और योद्धाओं के प्रति अपने स्नेह के वश में आत्मनियंत्रण खो बैठे थे। वे मुख से आशीर्वाद दे रहे थे। लोगों के सिरों पर स्नेह का हाथ फेर रहे थे। कंधे थपथपा रहे थे।

और सहसा अपने चरणों पर गिरे दो भाइयों को भुजाओं से पकड, ऊपर उठाकर, उन्होंने आश्चर्य से देखा, "तुम लोग कहां चले गए थे गहन के पुत्रो?''

''आर्य कुलपति! हम अपने ग्राम के लोगों को इस धर्मयुद्ध के लिए बुलाने के लिए गए थे। ऋषिवर! आपकी अनुमति के बिना इस प्रकार लुप्त हो जाने तथा ग्राम दूर होने के कारण युद्ध के पूर्व न पहुंच पाने के लिए हम आपसे क्षमा-याचना करते हैं। हमें क्षमा करें गुरुदेव!'' वे दोनों फिर से गुरु के चरणों में लोट गए।

प्रसन्नता के कारण गुरु के नेत्रों में आंसू छलक आए, "हम भी पीछे नहीं रहे निषाद वीरो! तुम भी धन्य हो।''

''आर्य कुलपति!'' गहन का ज्येष्ठ पुत्र गगन खड़ा होकर सधी हुई आवाज में बोला, "एक और बात के लिए भी हमें क्षमा याचना करनी है। हम आपकी आज्ञा के बिना ही, अपने अपराधी, सेना-नायक बहुलाश्व के पुत्र देवप्रिय और उनके चार साथियों को बंदी बनाकर लाए हैं। इस कारण से भी हमें आने में कुछ विलंब हुआ गुरुवर! हम यह जानते हैं महर्षि कि हम निषाद हैं और अपराधी आर्य हैं। हम इस तथ्य से भी अवगत हैं कि वे शासन प्रतिनिधि सेनापति बहुलाश्व के संबंधी हैं।

हमें यह भी स्वीकार है कि वे लोग धनवान और समृद्ध जन हैं-पर फिर भी हम आपसे न्याय मांगते हैं आर्य कुलपति! आपने ही हमें आश्रय दिया था, न्याय भी हमें आपसे ही मिल सकेगा।''

विश्वामित्र स्नेह और विस्मय के भाव से गगन को देखते रहे। बोले, ''अदभुत है पुत्र! अपराधियों को बंदी भी कर लाए। तुम आर्य नहीं हो, शासन-प्रतिनिधि के संबंधी नहीं हो, तुम धनी-मानी नहीं हो, पर तुम विकट वीर हो गगन! न्याय जाति, संबंधों, संभ्रांतता तथा समृद्धि का विचार नहीं करता। तुम्हें न्याय तो मिलना ही चाहिए। वैसे भी पुत्र! दुर्बल को न्याय मांगने का अधिकार सबल से कहीं अधिक होता है। किंतु वत्स! न्याय तुम्हें मुझसे नहीं मिलेगा। यद्यपि आश्रम का कुलपति मैं हूं, फिर भी शासन के प्रतिनिधि राम हैं। कोसल के सम्राट् दशरथ के पुत्र। युद्ध की जय का श्रेय भी उन्हीं को है। न्याय वह ही करेंगे। जाओ, अपराधियों को प्रस्तुत करो।''

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    अनुक्रम

  1. प्रथम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. बारह
  24. तेरह

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