उपन्यास >> दीक्षा दीक्षानरेन्द्र कोहली
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दीक्षा
निषादों ने पांच आर्य युवक लाकर राम के सम्मुख खड़े कर दिए। उनके हाथ पीठ-पीछे बंधे हुए थे। उनका वर्ण गौर था। आकार दीर्घ था। शरीर पर ढीला विलासी मांस और उस पर अनेक स्वर्णाभूषण थे। उनकी आंखों में काजल, केशों में सुगंधित तेल, और मुख पर चंदन-लेप था। अधरों पर तांबूल की रक्तिमा अब तक काली पड़ चुकी थी।
देवप्रिय ने राम को देखा और उसके मुरझाए हुए मुख पर कुछ उत्साह झलक आया। वह एक डग आगे बढ़ आया, ''राजकुमार! आपको यहां देखकर मैं अत्यन्त आश्वस्त हुआ हूं। देखिए, ये नीच निषाद मुझे पकड़कर बांध लाए हैं। मुझे लगता है कि इन्होंने इतना दुस्साहस इस बूढ़े ढोंगी विश्वामित्र की प्रेरणा पर किया है। यह बूढ़ा सदा से आर्य द्रोही और दस्यु-मित्र रहा है। शबरी के प्रेम को कभी नहीं भूल पाया। आप यहां न होते तो यह अवश्य मुझे मरवा डालता। आप आर्य सम्राट् दशरथ के प्रतिनिधि हैं, मैं आपसे न्याय मांगता हूं।''
लक्ष्मण का क्रोध से तमतमाता चेहरा विद्रूप में कुछ फैल गया, ''भैया! इसके साथ बहुत अन्याय हुआ है। न्याय -के लिए यह उत्सुक भी बहुत है। इसे मैं कुछ न्याय दे दूं?''
राम मुस्कराए, ''ठहरो लक्ष्मण!'' और वे देवप्रिय की ओर मुड़े, ''देवप्रिय, तुम्हें केवल न्याय मिलेगा। आज यहां सिवाय न्याय के और कुछ नहीं होगा।''
आचार्य विश्वबंधु काफी देर से कुछ कहने को उतावले हो रहे थे, अब रुक नहीं सके। विश्वामित्र को संबोधित कर बोले, ''आर्य कुलपति! ये बालक राक्षस नहीं, आर्य हैं; फिर ये राज परिवार से संबद्ध हैं। निषादों की प्रार्थना पर इनका न्याय इस प्रकार दासों और दस्युओं के समान नहीं हो सकता। इनके हाथ मुक्त किए जाएं।...''
वे इस प्रकार आगे बढ़े, जैसे वे स्वयं देवप्रिय तथा उसके साथियों के हाथ मुक्त कर देंगे।
लक्ष्मण ने अपना विशाल धनुष आचार्य विश्वबंधु के मार्ग में अड़ा दिया, ''आचार्य! यह ग्रंथ-विमोचन नहीं है, जो आप ही के कर-कमलों से हो। इस कार्य को आप इस दास के लिए छोड़ दें...''
राम का ध्यान लक्ष्मण के परिहास की ओर नहीं था। उनके नयन सात्विक क्रोध से आरक्त हो गए। उनका स्वर, किंचित् आवेश-मिश्रित किंतु गंभीर था, ''राक्षसों का न्याय चाहे न हो, किंतु इनका न्याय अवश्य होगा। ये लोग आर्य संस्कृति में पोषित होकर भी राक्षस हो गए, राक्षसों के सहायक हो गए। अपने राजसी अधिकारों का दुरुपयोग करने वाले, निरीह प्रजा को पीड़ित करने वाले, ये लोग आर्य नहीं हैं-चाहे ये लोग आर्य सेनानायकों के ही पुत्र क्यों न हों। 'आर्य' किसी जाति, वर्ण, आकार, अथवा पक्ष का नाम नहीं। वह मानवीय सिद्धांत, आदर्श और महान् चरित्र का नाम है। जो अमानवीय कृत्य इन्होंने निषाद स्त्री-पुरुषों के साथ किए हैं, उन पापों के प्रतिकार के लिए, इन राक्षसों के लिए मैं न्यूनतम दंड प्रस्तावित करता हूं-मृत्युदंड! क्या आप लोगों को स्वीकार है?''
''स्वीकार है। स्वीकार है।'' आश्रमवासियों, ग्रामीणों और निषादों का हर्ष भरा सम्मिलित स्वर गूंजा।
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- प्रथम खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- द्वितीय खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- बारह
- तेरह