उपन्यास >> दीक्षा दीक्षानरेन्द्र कोहली
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दीक्षा
विश्वामित्र को मुनि का प्रत्येक वाक्य अपने लिए ही उच्चारित होता लगता था। क्या आजानुबाहु जानबूझकर ऐसे वाक्यों का प्रयोग कर रहे हैं, या विश्वामित्र का अपना ही मन उन्हें धिक्कार रहा है...पर धिक्कार से क्या होगा, अब कर्म का समय है।
विश्वामित्र अपने चिंतन को नियंत्रित करते हुए बोले, ''न्याय पक्ष दुर्बल और भीरु हो गया है। अन्याय पक्ष दुस्साहसी तथा शक्तिशाली हो गया है। यह स्थिति अत्यन्त अहितकर है...। आप शासन-प्रतिनिधि सेनानायक बहुलाश्व के पास भी गए थे?''
''आर्य! गया था।'' मुनि का स्वर और अधिक शुष्क और उदासीन हो गया।
''उससे क्या वार्तालाप हुआ? क्या उसने अपराधियों को बंदी करने के लिए सैनिक भेजे?''
''उससे वार्तालाप तो बहुत हुआ।'' मुनि ने उत्तर दिया। उनके स्वर में फिर वही भाव था। विश्वामित्र साफ सुन पा रहे थे। आजानुबाहु ने कुलपति की आज्ञा का पालन अवश्य किया था, किंतु उन्हें इन कार्यों की सार्थकता पर विश्वास नहीं था। ''किंतु उसने अपने सैनिकों को कोई आदेश नहीं दिया। कदाचित् वह कोई आदेश देगा भी नहीं।''
''क्यों?'' विश्वामित्र की भृकुटि वक्र हो उठी।
''सेनानायक बहुलाश्व को आज बहुत-से उपहार प्राप्त हुए हैं, आर्य कुलपति! उसे एक बहुमूल्य रथ मिला है। उसकी पत्नी को शुद्ध स्वर्ण के आभूषण मिले हैं। मदिरा का एक दीर्घाकार भांड मिला है; और कहते हैं कि एक अत्यन्त सुंदरी दासी भी दिए जाने का वचन है...''
''ये उपहार किसने दिए हैं मुनिवर?''
''निश्चित रूप से राक्षस-शिविर ने आर्य! राक्षस बिना युद्ध किए भी विपक्षी सैनिकों को पूर्णतः पराजित कर देते हैं।''
विश्वामित्र के मन में सीमातीत क्षोभ हिल्लोलित हो उठा। शांतिपूर्वक बैठे रहना उनके लिए असंभव हो गया। वे उठ खड़े हुए और अत्यंत व्याकुलता की स्थिति में, अपनी कुटिया में एक कोने से दूसरे कोने तक टहलने लगे। मुनि आजानुबाहु ने उन्हें ऐसी क्षुब्धावस्था में कभी नहीं देखा था...।
विश्वामित्र जैसे वाचिक चिंतन करते हुए बोले, ''इसका अर्थ यह हुआ कि शासन, शासन-प्रतिनिधि, सेना-सबके होते हुए भी, जो कोई चाहे, मनमाना अपराध कर ले और उसके प्रतिकार के लिए शासन-प्रतिनिधि के पास उपहार भेज दे-उसके अपराध का परिमार्जन हो जाएगा। यह कैसा मानव-समाज है? हम किन परिस्थितियों में जी रहे हैं? यह कैसा शासन है? यह तो सभ्यता-संस्कृति से दूर हिंस्र-पशुओं से भरे किसी गहन विपिन में जीना है...।''
''इतना ही नहीं कुलपति!'' मुनि के स्वर में व्यंग्य से अधिक पीड़ा थी, ''मैंने तो सुना है कि अनेक बार ये राक्षस तथा उनके मित्र शासन-प्रतिनिधि को पहले से ही सूचित कर देते हैं कि वे लोग किसी विशिष्ट समय और विशिष्ट स्थान पर, कोई अत्याचार करने जा रहे हैं-शासन-प्रतिनिधि को चाहिए कि वह उस समय, अपने सैनिकों को उधर जाने से रोक ले; और शासन-प्रतिनिधि वही करता है...इस कृपा के लिए शासन-प्रतिनिधि को पूर्ण पुरस्कार दिया जाता है...।''
''असहनीय। पूर्णतः अमानवीय। राक्षसी...राक्षसी...'' विश्वामित्र विक्षिप्त-से इधर से उधर चक्कर लगा रहे थे।
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- प्रथम खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- द्वितीय खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- बारह
- तेरह