उपन्यास >> दीक्षा दीक्षानरेन्द्र कोहली
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दीक्षा
''आपने सेनानायक को बताया था कि आप सिद्धाश्रम से आए हैं, और आपको मैंने भेजा है?'' सहसा विश्वामित्र ने रुककर पूछा।
''हां आर्य!'' मुनि ने कहा।
''उसका कोई प्रभाव नहीं हुआ?''
मुनि आजानुबाहु के मुख पर व्यंग्य आ बैठा, ''आप सब कुछ जानते हुए भी पूछते हैं ऋषिवर? राक्षसों ने कभी भी आश्रमों तथा ऋषियों को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा। उनकी ही देखा-देखी अनेक आर्यों ने भी ऋषियों को उपहास की, तुच्छ एवं नगण्य वस्तु मान लिया है। सेनानायक बहुलाश्व ने मुझे ऐसा ही सम्मान दिया...। हम उनके लिए क्या हैं? निरीह, कोमल जीव। जो उन्हें डंक नहीं मार सकते, और वे जब चाहें, हमें मसल सकते हैं।''
विश्वामित्र का ध्यान मुनि के व्यंग्यात्मक स्वर की ओर नहीं गया, उनका क्रोध बढ़ता जा रहा था-लगता था, ये किसी भी क्षण फट पड़ेंगे; पर उन्होंने स्वयं को किसी प्रकार नियंत्रित किया। बोले, ''अच्छा मुनिवर! आप विश्राम करें, मैं कोई न कोई व्यवस्था अवश्य करूंगा। यह क्रम बहुत दिन नहीं चलेगा।''
मुनि आजानुबाहु उठे नहीं। वैसे ही बैठे-बैठे तनिक-सा सिर झुकाकर बोले, उदि अनुमति हो, तो एक और सूचना देना चाहता हूं। घटना तनिक विस्तार से बताने की है।''
विश्वामित्र का क्रोध उन्हें खींचकर बार-बार किसी और लोक में ले जाता था, और वह बार-बार स्वयं को घसीटकर सिद्धाश्रम में ला रहे थे। कैसा समय है कि जिस ऋषि विश्वामित्र के सम्मुख आर्य सम्राट सिर झुकाते थे-आज एक तुच्छ सेनानायक उनकी उपेक्षा कर रहा था, केवल इसलिए कि उन्होंने अपनी इच्छा से राजसिक सत्ता, सैन्य-बल, अस्त्र-शस्त्र तथा भोग की भौतिक सामग्रियों का त्याग कर समाज के कल्याण के लिए तपस्या का यह कठिन मार्ग स्वीकार किया था। जिन गुणों के लिए उनकी पूजा होनी चाहिए थी, उन्हें उनका दोष मान लिया गया है...।
मुनि की बात सुनकर बोले, ''कहिए मुनिवर! मैं सुन रहा हूं।''
''आर्य कुलपति!'' आजानुबाहु बोले, ''सेनानायक बहुलाश्व के सैनिक शिविर के समीप, सम्राट दशरथ के राज्य की सीमा के भीतर ही एक ग्राम है-ग्राम के निवासी जाति के निषाद हैं। पुरुष अधिकांशतः नौकाएं चलाते हैं और स्त्रियां मछलियां पकड़ती हैं...''
''शायद मैं उस ग्राम से परिचित हूं।'' विश्वामित्र बोले।
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- प्रथम खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
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- छः
- सात
- आठ
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- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
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