उपन्यास >> दीक्षा दीक्षानरेन्द्र कोहली
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दीक्षा
''उसी ग्राम में गहन नामक एक व्यक्ति रहता है। कुछ दिन पूर्व आर्य युवकों का एक दल गहन की कुटिया पर गया था। युवकों ने मदिरा इतनी अधिक पी रखी थी कि उन्हें उचित-अनुचित का बोध नहीं था। उन्होंने सीधे स्वयं गहन के पास जाकर मांग की थी कि वह अपने परिवार की स्त्रियां उनकी सेवा में भेज दे। ऐसी अशिष्ट मांग सुनकर गहन क्रुद्ध हो उठा। उसके आह्वान पर ग्राम के अनेक युवक वहां एकत्रित हो गए। किंतु आर्य युवक अपनी मांग से टले नहीं। उनका तर्क था कि वे लोग धनी-मानी सवर्ण आर्य हैं और कंगाल गहन परिवार की स्त्रियां, नीच जाति की स्त्रियां हैं। नीच जाति की स्त्रियों की भी कोई मर्यादा होती है क्या? वे होती ही किसलिए हैं?''
''वे लोग न केवल अपनी दुष्टता पर लज्जित नहीं हुए, वरन् अपनी हठ मनवाने के लिए झगड़ा भी करने लगे। उस झगड़े में उन्हें कुछ चोटें आईं। अंततः वे लोग यह धमकी देते हुए चले गए कि वे नीच जाति को उसकी उच्छृंखलता के लिए ऐसा दंड दिलाएंगे, जो आज तक न किसी ने देखा होगा, न सुना होगा।''
''फिर?'' विश्वामित्र तन्मय होकर सुन रहे थे।
''गहन कुल से अस्वस्थ चल रहा था। आज जब सारा ग्राम अपने काम से नदी पर चला गया, गहन अपनी कुटिया में ही रह गया। गहन की देखभाल के लिए उसकी पत्नी भी रह गई। अपनी सास की सहायता करने के विचार से गहन की दोनों पुत्र-वधुएं भी घर पर ही रहीं। गहन की दुहिता अकेली कहां जाती; अतः वह भी नदी पर नहीं गई...।''
''फिर?'' विश्वामित्र जैसे श्वास रोके हुए, सब कुछ सुन रहे थे।
''अवसर देखकर आर्य युवकों का यही दल ग्राम में घुस आया।'' मुनि आजानुबाहु ने बताया, ''अकेला अस्वस्थ गहन क्या करता? उन्होंने उसे पकड़कर एक खंभे के साथ बांध दिया। उसकी वृद्धा पत्नी, युवा पुत्रवधुओं तथा बाला दुहिता को पकड़कर, गहन के सम्मुख ही नग्न कर दिया। उन्होंने वृद्ध गहन की आंखों के सम्मुख बारी-बारी उन स्त्रियों का शील भंग किया। फिर उन्होंने जीवित गहन को आग लगा दी; और जीवित जलते हुए गहन की उस चिता में लौह-शलाकाएं गर्म कर-करके उन स्त्रियों के गुप्तांगों पर उनकी जाति चिह्नित की...''
''असहनीय!'' विश्वामित्र ने व्यथा से कराहते हुए कहा।
उन्होंने दोनों हथेलियों से अपने कान बंद कर, आंखें मींच ली थीं।
वृद्ध ऋषि की मानसिक पीड़ा देखकर मुनि आजानुबाहु चुप हो गए-ऋषि विश्वामित्र से उच्च, आर्यों की कौन-सी जाति है! भरतों में सर्वश्रेष्ठ, विश्वामित्र! वह विश्वामित्र उन निषाद स्त्रियों के साथ घटी घटना को सुन नहीं सकते-और वे कुलीनता का दंभ भरने वाले आर्य युवक ऐसे कृत्यों को अपना धर्म मानते हैं...
आजानुबाहु को लगा, उसके मन में बैठा विश्वामित्र-द्रोही भाव विगलित हो गठा है और अब उसके मन में श्रद्धा है। इस वृद्ध ऋषि के लिए दूसरा भाव हो ही क्या सकता है! स्फटिक जैसा उज्ज्वल मन होते हुए भी, परिस्थितियों के सम्मुख कैसे असहाय हो गए हैं विश्वामित्र!
मुनि चुपचाप कुलपति की आकृति पर चिह्रित पीड़ा को आंखों से पीते रहे। कुछ नहीं बोले। और बोलकर ऋषि की पीड़ा में वृद्धि करना उचित होगा क्या?...
''इस घटना की सूचना सेनानायक बहुलाश्व को है?'' अन्त में विश्वामित्र ने ही पूछा।
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- प्रथम खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- द्वितीय खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- बारह
- तेरह