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दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14995
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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दीक्षा

अश्वारोही रुक गए। केवल उनका नायक चार सैनिकों के साथ आगे बढ़ा। नायक और उसके साथ के चार सैनिकों ने इन लोगों से कुछ दूरी पर अश्व त्याग दिए, किंतु उनके खड्ग अब भी उनके साथ थे। वे पदाति आगे बढ़े और उन्होंने गुरु विश्वामित्र को साष्टांग प्रणाम किया।

राम ने गुरु को देखा। गुरु के मन का असमंजस उनके चेहरे पर लिखा हुआ था। पर उन्होंने स्वयं को नियंत्रित कर नायक को कंधों से पकड़कर उठाया और बोले, ''सेनानायक बहुलाश्व! तुम?''

''आर्य कुलपति!'' नायक के मुख पर उद्धतता, वाणी में खुरदरापन तथा शब्दों के चयन में स्पष्ट असावधानी थी, ''सुना था राजकुमार राम तथा लक्ष्मण आए हुए हैं, अतः उन्हें प्रणाम करने चला आया।'' उसने आगे बढ़कर, झुककर राम को प्रणाम किया, ''कुछ नीच निषाद मेरे पुत्र देवप्रिय को अनधिकृत रूप से बंदी कर सुना है, न्याय के लिए आपके पास लाए हैं। प्रार्थना है, उसे तथा उसके साथियों को मुक्त कर दिया जाए।''

''सेनानायक!'' राम का तेजस्वी स्वर गूंजा, ''तुम यहां प्रणाम करने आए हो। प्रार्थना करने आए हो। तुम आर्य सेनानायक हो और अपने सशस्त्र अश्वारोहियों के साथ सिद्धाश्रम में घुस आए। क्या तुम्हें आर्य नियमों का ज्ञान नहीं है?''

बहुलाश्व के स्वर में उद्धतता पहले से बहुत बढ़ गई थी, ''कदाचित् राजकुमार को ज्ञान नहीं है कि आर्यावर्त के इस भाग में ऐसा ही प्रचलन है।''

''यह प्रचलन तुम्हारे ही कारण है बहुलाश्व।''

''किसी के भी कारण हो।'' बहुलाश्व लापरवाही से बोला, ''मुझे उससे कोई विवाद नहीं है। देवप्रिय कहां है राम?''

''उसका न्याय कर दिया गया है सेनानायक।'' राम अत्यन्त ओज भरे स्वर में बोले, ''उसे मृत्युदंड दिया गया है। लक्ष्मण उसका वध कर चुके होंगे।''

''मृत्युदंड!'' बहुलाश्व का मुख एक साथ पीला और लाल हो गया, ''यह न्याय किसकी इच्छा से हुआ है राजकुमार?''

''न्याय किसी की इच्छा से नहीं होता बहुलाश्व।'' राम बोले, ''न्याय सत्य और मानव-प्रेम पर आधृत होता है। तुम और तुम्हारा पुत्र अधिकार पाकर राक्षस हो गए थे। तुम लोगों का न्याय होना ही चाहिए।''

बहुलाश्व के मुख पर भय के चिह्न एकदम मिट चुके थे। वह क्रोध से जल रहा था। उसने क्रोध से बाहर निकाल नग्न खड्ग हाथ में ले लिया, ''यह न भूलो राजकुमार कि अयोध्या और अयोध्या की सेना यहां से बहुत दूर है। यहां मैं हूं सेनानायक बहुलाश्व! मेरी आज्ञा के बिना, किसी का न्याय करने का तुम्हें क्या अधिकार था?''

राम की सतर्क आंखों ने देखा, बहुलाश्व के खड्ग के नग्न होते ही, उसके सैनिकों ने फैलना आरंभ कर दिया था और उपस्थित समुदाय को चारों ओर से घेर लिया था।

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    अनुक्रम

  1. प्रथम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. बारह
  24. तेरह

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