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उपन्यास >> दीक्षा

दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14995
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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दीक्षा

''अधिकार उसको होता है जो न्याय कर सके।'' राम मुस्कराए, ''मेरा अधिकार भी यही था। और अयोध्या की सेना के दूर होने से भी कोई अंतर नहीं पड़ेगा। किसी का भी न्यायपूर्ण व्यवहार, अपने आस-पास के जन-सामान्य में से सेना खड़ी कर लेता है। राम सेनाएं साथ लेकर नहीं चलता। वह जनता में से सेना का निर्माण करता है। अतः अब मुझे तुम्हारा भी न्याय करना है।''

''मेरा न्याय!'' बहुलाश्व की आंखें जैसे क्रोध से फट पड़ीं।

''केवल अपराधी को दंड दे देने से न्याय पूर्ण नहीं हो जाता बहुलाश्व।'' राम ने अपने ओजस्वी स्वर में कहा, ''अपराधी की रक्षा करने वाले शासन-प्रतिनिधि को भी उसके दुष्ट कृत्यों के लिए दंडित किया जाना पूर्णतः न्याय के अंतर्गत है। तुमने पुत्र-प्रेम में पड़कर, प्रजा पर अमानवीय अत्याचार करने वाले राक्षसों की रक्षा की है, उनसे मित्रता की है, उनसे उत्कोच स्वीकार किया है। तुमने न केवल अपना कर्त्तव्य पूर्ण नहीं किया, तुमने अपने अधिकारों का दुरुपयोग भी किया है। इन अपराधों के लिए तुम्हें कोई कठिन दंड मिलना चाहिए, किंतु मैं दयावश तुम्हें केवल मृत्युदंड दे रहा हूं।''

बहुलाश्व ने क्रोध में दांत पीसे। नग्न खड्ग को उसने अपने हाथ में तौला और आक्रामक मुद्रा में राम की ओर बढ़ते हुए बोला, ''देखता हूं मुझे कौन दंड देता है...।''

उसके सैनिक सावधान हो गए। उनका घेरा संकीर्ण होने लगा। उपस्थित जन-समुदाय भय से पीला पड़ गया। गुरु विश्वामित्र भी कुछ विचलित हो गए।

राम अपनी परिचित मोहक मुस्कान अधरों पर ले आए। अत्यन्त सहज भाव से बोले, ''तो देखो।''

शब्दों के साथ ही राम की भुजाएं सक्रिय हुईं। और अंतिम शब्द के साथ ही राम का बाण बहुलाश्व के वक्ष को मध्य से बेध गया।

''आत्मसमर्पण करो।'' तभी लक्ष्मण का आदेश देता हुआ स्वर कड़क उठा।

बहुलाश्व के बढ़ते हुए सैनिकों ने देखा, उनके सम्मुख, राम के चरणों के पास बहुलाश्व का शव धरती पर पड़ा था। राम अब भी धनुष ताने अपनी उसी उग्र मुद्रा में प्रस्तुत थे; और जाने कब लक्ष्मण लौट आए थे। लक्ष्मण ने अपनी टोली के साथ उन्हें पृष्ठ पर से घेर लिया था और वे आक्रमण के लिए पूर्णतः सन्नद्ध थे।

सैनिकों के खड्ग कोष मै लौट आए। उनके अश्वों के पग जहां के तहां रुक गए।

क्षण-भर में उनका उपनायक अश्व से उतर पदाति राम की ओर बढ़ा। उसनै अपना खड्ग माथे से लगा झुककर राम को प्रणाम किया और खड्ग राम के चरणों के पास, भूमि पर रख दिया।

''प्रभु! मैं उपनायक पृथुसेन अपने अधीन सैनिकों के साथ आत्मसमर्पण करता हूं। सेनानायक बहुलाश्व कीं आज्ञाओं के अधीन किए गए कृत्यों के लिए हमें दंड दिया जाए, अथवा यदि प्रभु उचित समझें तो क्षमा किया जाए।''

उपनायक पृथुसेन राम के सम्मुख घुटनों के बल बैठ गया। राम मुस्कराए। उन्होंने खड्ग उठा लिया। बोले, "उठो पृथुसेन।''

पृथुसेन उठ खड़ा हुआ।

राम ने खड्ग उसे प्रदान किया. ''मैं अयोध्या के शासन-प्रतिनिधि के रूप में न्याय की रक्षा तथा अत्याचार के दमन के लिए तुम्हें इन सैनिकों का सेनानायक नियुक्त करता हूं। देखना, जनता को तनिक भी असुविधा न हो। जाओ अपने सैनिकों के साथ सिद्धाश्रम के बाहर मेरी आज्ञा की प्रतीक्षा करो।''

पृथुसेन ने झुककर अभिवादन किया और अपने सैनिकों की ओर मुड़ गया।

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    अनुक्रम

  1. प्रथम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. बारह
  24. तेरह

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