उपन्यास >> दीक्षा दीक्षानरेन्द्र कोहली
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दीक्षा
इंद्र ने सारा दिन अवसाद की उधेड़-बुन में किसी प्रकार काट दिया। रात होते-होते, उसका चिंतन एक विशेष दिशा में चल पड़ा था। उसने अच्छी तरह देख लिया था कि अहल्या उस पर थूकना भी पसंद नहीं करती। वह उसके पहली संध्या के क्षणभर के व्यवहार से ही इतनी वितृष्णा से भर उठी थी कि उसने उसके प्रति अभ्यागत के शिष्टाचार का निर्वाह करने की भी आवश्यकता नहीं समझी थी। प्रातः यज्ञ-कुंड के पास बैठे हुए, उसने अपना ध्यान अग्नि की ओर इतनी सावधानी से केंद्रित कर रखा था कि कहीं भूल से भी उसकी दृष्टि इंद्र पर न पड़े...इद्र यदि यह समझता है कि अहल्या उसके रूप, वैभव, पद अथवा सत्ता से प्रभावित होकर, उसके पास आ जाएगी तो यह उसका भ्रम है...अहल्या अपने आप उसके पास कभी नहीं आएगी, कभी नहीं। वह उससे घृणा करती है...। इंद्र को ही उसके पास जाना होगा। 'जब तक यह सम्मेलन चल रहा है, इंद्र तभी तक यहां है। सम्मेलन के इन दिनों में कुलपति की पत्नी अहल्या कुछ इतनी व्यस्त रहेगी कि कुटिया में वह एक क्षण के लिए भी अकेली नहीं मिलेगी। कुटिया के बाहर, जहां कहीं भी वह होगी, अकेली नहीं होगी उसके निकट अनेक आश्रमवासी और अभ्यागत होंगे...
तो क्या इंद्र निराश लौट जाए?...असफल? इंद्र होकर भी असफल?...इंद्र एक साधारण ऋषि-पत्नी को प्राप्त करने में असफल हो जाएगा? एक कंगाल ऋषि की पत्नी में इतना दंभ कि वह इंद्र के काम-आह्वान को इस प्रकार ठुकरा दे?...इंद्र को सहज नहीं तो असहज ढंग से अहल्या को प्राप्त करना होगा...उसे कुछ असाधारण करना होगा...
इंद्र के मस्तिष्क में वे कुछ क्षण घूम गए, जब प्रातः अंधेरे-अंधेरे में ही गौतम, स्नान के लिए कुटिया से निकल गए थे, और अहल्या कुटिया में अकेली रह गई थी...कुछ क्षणों के लिए ही सही, पर वह अकेली ही थी...इंद्र के लिए वही एक अवसर था...आज इंद्र को चूकना नहीं था...
आधी रात के समय से ही इंद्र सन्नद्ध होकर अपने कुटीर के गवाक्ष के पास बैठ गया। उसके मन का कोई अंश बार-बार उसके निर्णय के विरुद्ध विद्रोह कर रहा था, किंतु इंद्र उसकी बात सुनने को प्रस्तुत नहीं था। जब भी वह क्षीण-सा स्वर उसके भीतर कही उठा, उसने उस पर मदिरा का एक पात्र ढाल दिया.. इस स्वर को सुनने का उसे कोई लाभ नहीं था। आज अहल्या को प्राप्त करके ही रहेगा...
समय जैसे बीत ही नहीं रहा था, और इंद्र को इस प्रकार बैठकर प्रतीक्षा करने की आदत नहीं थी। उसके तो एक इंगित मात्र पर सुंदरी से सुंदरी अप्सरा उसकी सेवा में उपस्थित हो जाती थी...पर अहल्या की बात ही और थी। उसके सौंदर्य से किसी अप्सरा की तुलना नहीं हो सकती थी। अहल्या का गठा हुआ परिश्रमी शरीर, उसका वह सात्विक तेज, उसकी बड़ी-बड़ी आंखों में संतुष्टि का वह ठहराव...
सहसा इंद्र सचेत हो गया। अभिसारिकाओं के प्रेम में दक्ष इंद्र ऐसी ध्वनियों को सहज ही समझ लेने में पारंगत था...कदाचित गौतम शैया से उठे थे। यह उन्हीं की आहट होनी चाहिए। अभी एक क्षण में कुटिया का द्वार खुलेगा, गौतम बाहर चले जाएंगे। कुटिया का द्वार भिड़ा होगा, और भीतर होगी अहल्या-अकेली, निस्सहाय, असुरक्षित...।
इन्द्र उठकर खड़ा हो गया।
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- प्रथम खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- द्वितीय खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- बारह
- तेरह