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उपन्यास >> दीक्षा

दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14995
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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दीक्षा

आचार्य ज्ञानप्रिय देख रहे थे कि अनर्थ हुआ चाहता है। अपने स्वार्थ के पीछे यह व्यक्ति, समस्त मिथिला राज्य की ज्ञान-गरिमा को कलुषित करके छोड़ेगा।

वे स्वयं को रोक नहीं पाए, ''नए आश्रम को बिना उपयुक्त कुलपति के सम्राट् जनक से मान्यता नहीं मिल पाएगी। नया कुलपति कौन होगा?''

अनेक ब्रह्मचारी एक साथ चिल्लाए, ''ऋषि गौतम! ऋषि गौतम!''

अमितलाभ के सिखाए हुए ब्रह्मचारी उनका नाम पुकारने में पिछड़ गए थे।

अमितलाभ ने मुस्कान का मुखौटा ओढ़ लिया, ''हम जानते हैं कि ऋषि गौतम से योग्य कुलपति हमारे मध्य दूसरा नहीं है। हम नये आश्रम की स्थापना कर, उनसे प्रार्थना करेंगे कि वे अपनी भ्रष्ट पत्नी का त्याग कर वहां आ, आश्रम की व्यवस्था संभालें। यदि वे न आए, तो फिर किसी अन्य विद्धान् को यह पद सौंपा जा सकता है।''

ज्ञानप्रिय कुछ नहीं बोले। अमितलाभ ने गौतम के विषय में ऐसी कोई बात नहीं कही थी, जिसका विरोध किया जा सके। पर अहल्या...इस समय अहल्या का समर्थन जोखिम का काम है। सामान्य-जन अहल्या को दोषी मान बैठा है।

सर्व-सम्मति से अमितलाभ का प्रस्ताव मान लिया गया। झानप्रिय चुपचाप अपनी कुटिया में लौट आए। पति-पत्नी दोनों ही इस घटना से दुखी थे, किंतु दोनों ही समझ रहे थे कि वे लोग गौतम और अहल्या की अधिक सहायता नहीं कर सकते हैं। इस समय दोनों को ही नए आश्रम में चले जाना चाहिए, और वहां गौतम की प्रतिष्ठा बनाने का प्रयत्न करना चाहिए, अन्यथा अमितलाभ अनिष्ट कर डालेगा।

''किंतु मैं शत को कैसे छोड़ूंगी स्वामि!'' सदानीरा सिसक उठी, ''ईश्वर ने मुझे कोई संतान नहीं दी...मैंने कभी उससे शिकायत नहीं की। मैं तो शत को पाकर ही संतुष्ट थी। प्रभु से वह भी नहीं देखा जाता। कैसा क्रूर है वह...!''

''धैर्य रख सदानीरे!'' ज्ञानप्रिय ने समझाया, ''भाग्य सदा वक्र नहीं रहता। तेरा शत भी तेरे पास आएगा।''

अहल्या ने अपने भीतर झांककर देखा। उसे लगा उसके भीतर सब कुछ मर चुका है, जीने की रंचमात्र भी इच्छा उसके भीतर शेष नहीं थी। उसे स्वयं अपने-आप से घृणा हो रही थी...इन्द्र जैसे दुष्ट, नीच, घृणित कीट ने इस शरीर का भोग किया था...अहल्या का स्वाभिमान, परिष्कार, सौन्दर्य-बोध, अपने चरित्र का बिंब...सब कुछ ही तो खंडित हो चुका था। जब उसे स्वयं ही अपने जीने की कोई सार्थकता नहीं लग रही थी, तो अन्य लोगों की दृष्टि में उसके जीने का क्या मूल्य था...वह अब कभी भी कुलपति की धर्मपत्नी का, ऋषि-पत्नी का सम्मान नहीं पा सकेगी। अपने इस पतित शरीर के साथ वह कभी भी अग्निहोत्र पर अपने पति के निकट अधिकारपूर्वक नहीं बैठ सकेगी...वह जहां कहीं जाएगी, प्रत्येक व्यक्ति उस पर अंगुली उठाएगा कि वह इन्द्र की भोग्या है। गौतम जहां जाएंगे, उन्हें देखते ही प्रत्येक व्यक्ति के मन में पहली बात यही उभरेगी कि अहल्या उन्ही की पत्नी है, और अहल्या...शत बड़ा होगा, वह प्रत्येक व्यक्ति के मुख से यही सुनेगा कि वह अहल्या का बेटा है, और अहल्या...।

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    अनुक्रम

  1. प्रथम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. बारह
  24. तेरह

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